साहित्य मानव मन की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिम्ब होता है। मानव मन के भावों को प्रकट करने का माध्यम साहित्य ही होता है। जिसमें सहित और हित की भावना रहती है। मानव निर्मित समाज में कब क्या घटित हो रहा है, यह सब साहित्य यथार्थ रूप समक्ष रखता है। सच्चाई का प्रकटीकरण यदि किसी स्रोत से प्रवाहित होता है तो वह साहित्य है। मनुष्य जैसे-जैसे विकास के पथ पर अग्रसर हुआ, सुसंस्कृत सभ्य हुआ वैसे-वैसे उसकी चिन्तनसरणी भी विकसित व परिवर्तित होती गई। इस परिवर्तन में उसकी चित्तवृत्ति भी अपना स्वरूप बनाती गई। आदि से अन्त तक भावों का संचित कोश साहित्य से पल्लवित और पुष्पित होता है।
इस सागर में मैंने भी एक बूँद डालने का प्रयास किया है। यह लघु प्रयास कहाँ तक संभव हो पाया है, पाठकवर्ग ही इसका निर्णय ले सकता है। किसी भी कृति की सफलता का आधार वह पाठक होता है, जो सूक्ष्म से सूक्ष्म दृष्टि से कृति का परीक्षण-निरीक्षण करता है। इसलिए 'सागर में एक बूँद' शीर्षक से प्रकाशित यह पुस्तक भी पाठकों की अदालत में प्रस्तुत है।
इस रचनाकर्म में मानवमन की बनती बिगड़ती वे समस्त भावधाराएँ समाहित हैं। सम्बन्ध कहीं न कहीं आज के विकसित मानव जीव से जुड़ा है। विश्वग्राम में परिवर्तित आज का मानव समाज तीव्रगति से अग्रसर तो है, किन्तु एक शिखर पर पहुँचकर वह अकेला ही रह जाता है।
यह सपना इन बिन्दुओं का समायोजित स्वरूप है। इस पुस्तक के प्रकाशन में जो सहयोग किशोर विद्या निकेतन, भदैनी, वाराणसी का मिला वह शब्दातीत है,क्योंकि लेखक के लिखें शब्दों को मूर्त रूप प्रकाशक ही देता है। इसलिए उनके लिए कृतज्ञता ज्ञापित है। अग्रजतुल्य डॉ० गोपाल चौहान जी के प्रति मैं श्रद्धावनत हूँ कृतज्ञ हूँ, महाविद्यालय प्राचार्य डॉ० अमरदेव जी का जिनकी अनुकम्पा सदैव मेरे साथ रही है। बड़े भाई की तरह गत १८ वर्षों से मेरे जीवन के प्रेरणा स्त्रोत श्री जयरामजी के प्रति मैं कृतज्ञ हूँ, यह जीवन आज जहाँ भी है, उन्हीं की देन है। परिवारद्वय के पूवर्ज विशेषतः सविता और ईशु जिनका सम्बन्ध प्रतिपल मेरे साथ रहता है। उनकी सहायता और अपनत्व ही मेरे रचना कर्म को पूर्ण रूप देता है।
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