डॉ. चंद्रपाल शर्मा
जन्म : 19 जुलाई 1938 ई., एम.ए. (हिंदी) पी-एच.डी. ।
व्यवसाय : महाविद्यालय में 39 वर्ष अध्यापन, रीडर एवं विभागाध्यक्ष पद से 2000 ई. में सेवानिवृत्त ।
प्रकाशित रचनाएं: 1. काव्यांग विवेचन और हिंदी साहित्य का इतिहास (1971);
2. गोस्वामी तुलसीदास व कवितावली (1971); 3. ऋतु वर्णन परंपरा और सेनापति का काव्य (शोध प्रबंध-प्रथम संस्करण 1973, द्वितीय संस्करण 2000); 4. अभिनव गद्य विधाएं (चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में स्वीकृत), संकलन व संपादन, 5. काव्य मधुरिमा-संकलन व संपादन (1991); 6. मूल अंकों में ध्वनित सांस्कृतिक चित्रण (1998); 7. अंक चक्र (2007); 8. चिंतन के क्षण (2013), 9. भारतीय संस्कृति और मूल अंक (2012); 10. चिंतन की मणियां (2017); 11. भारतीय संस्कृति और मूल अंकों के स्वर (प्रथम संस्करण 2017, द्वितीय संस्करण 2018) उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान से पुरस्कृत; 12. मानस चिंतन (2018) उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से महावीर प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार से पुरस्कृत (इस पुस्तक पर लेखक को 'संत तुलसीदास राष्ट्रीय सम्मान' मिला); 13. भारतीय संस्कृति और मूल अंकों के स्वर का अंग्रेजी अनुवाद (2020); 14. चिन्तन के विविध स्वर (2020); 15. वाल्मीकि रामायण का उत्तरकाण्ड (2021) और 250 से भी अधिक लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व संकलित ग्रंथों में प्रकाशित ।
जून 2000 ई. में सेनानिवृत्ति के बाद कक्षीय अध्यापन भले ही बन्द हो गया था किन्तु लेखनीय अध्यापन सतत् प्रवाहमान रहा है। अतः इस कालावधि में भारतीय संस्कृति व रामकाव्य का अध्ययन व लेखन ही रहा है। उसका सङ्घरिणाम यह मिला कि अनेक वरेण्य विद्वानों के आशीष-वचन मिले और उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान तथा उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने क्रमशः दो पुस्तकों- 'भारतीय संस्कृति और मूल अंकों के स्वर' तथा 'मानस चिन्तन' को पुरस्कृत भी कर दिया। लेखक को संतोष मिला क्योंकि 'आपरितोषाद् विदुषां न साधु मन्ये प्रयोग विज्ञानम्' ।
प्रस्तुत पुस्तक रामकथा पर मेरी सोच का प्रतिफलन है। रामकथा का मूल स्रोत वाल्मीकि रामायण है और हिन्दी भाषियों के लिए जानकारी का मूल आधार गोस्वामी तुलसीदास का महान् ग्रन्थ रामचरितमानस है। अतः मेरी दौड़ भी इन दो ग्रन्थों तक ही सीमित है। पूरे ग्रन्थ में मैंने रामकथा विषयक विद्वानों के किसी भी कथन का सहारा नहीं लिया है, जो कुछ है, वह अपना चिन्तन है। भले-बुरे का निर्णय प्रबुद्ध पाठकगण ही करेंगे।
किसी विषय पर लिखते समय मैंने परम्परा से हटकर कुछ कहने का प्रयास किया है, सरोवर में एक कंकड़ फेंका, जिससे हल्की-सी लहर चारों तट का स्पर्श करें। विद्वानों को सोचने के लिए विवश करने का प्रयास है। इस दृष्टि से मैं विशेष रूप से अनुरोध करूँगा कि विद्वान् पाठक 'वाल्मीकि रामायण का उत्तर काण्ड', 'वाल्मीकि रामायण के काण्ड', 'मानस में काम व क्रोध', 'दलित साहित्य के प्रथम कवि तुलसी व 'हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता' जैसे निबन्धों को अपनी विवेचनात्मक दृष्टि से देखें-परखें। उनकी प्रतिक्रिययाएँ जहाँ मेरा उत्साहवर्धन कर सकती हैं, वहीं मेरे अज्ञान व मेरी चपलता को भी प्रतिपादित करेंगी।
इस पुस्तक के अनेक लेख पत्र-पत्रिकाओं और अन्य पुस्तकों में स्थान पा चुके हैं। अतः बहुत से पाठक इसे पुनरावृत्ति भी कह सकते हैं, उनके सम्मुख मैं क्षमाप्रार्थी हूँ, किन्तु मैं यह दुस्साहस भगवान श्रीराम के नाम-सम्बल पर ही कर रहा हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि यह एक यज्ञ है। इसी कारण 'वाल्मीकि रामायण का उत्तरकाण्ड' एक दर्जन से भी अधिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है।
इस ग्रन्थ को मूर्त रूप देने का समस्त श्रेय 'अनामिका प्रकाशन' के स्वामी 'अनिल जी' को ही जाता है, जिन्होंने मेरे संकेत मात्र से प्रकाशन के लिए अपनी स्वीकृत दे दी। अन्त में आदि कवि भगवान् वाल्मीकि व प्रातः स्मरणीय गोस्वामी तुलसीदास के श्रीचरणों में प्रणाम करता हूँ, जिनकी कृपा से मुझ अल्पज्ञ को भी लेखक होने का गौरव प्राप्त हुआ है।
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