1986 का वह दिन मुझे आज भी याद है जब मैं 'दैनिक हिन्दुस्तान' के साहित्य सम्पादक शरदेन्दु जी के पास कोई उपन्यास या कहानी संग्रह समीक्षार्थ लेने गया था। कुछ दिन पहले ही मैंने कानपुर विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की थी और मन में यह भाव था कि मुझे भी उपन्यास और कहानी संग्रह पर लिखना चाहिए। मन में पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने की चाहत तो थी ही लेकिन उससे भी बड़ा भाव उन पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से अच्छा साहित्य पढ़ने का था। मैंने बाबू प्रतापनारायण श्रीवास्तव के व्यक्तित्व और कथा साहित्य पर शोध किया था, इसलिए मेरी विशेष रुचि कथा साहित्य में ही थी। लेकिन यदि मैं पढ़ने की प्राथमिकता की बात करूं तब पहले आत्मकथा, तत्पश्चात जीवनी, उपन्यास, कहानी और संस्मरण पढ़ना पसंद करता हूं। मैंने खोजकर आत्मकथाएं और जीवनियां पढ़ीं। शायद यही कारण रहा कि मैंने महान रूसी लेखक फ्योदोर मिखाइलोविच दॉस्तोएव्स्की की शोधपरक मौलिक जीवनी 'दॉस्तोएव्स्की के प्रेम' (प्र.सं.2008, दूसरा सं. 2023) (266 पृष्ठ) लिखी और हेनरी त्रोयत की लिखी लेव तोलस्तोय की जीवनी 'तोलस्तोय' का अनुवाद किया जो 656 पृष्ठों का है। तोलस्तोय के अंतिम उपन्यास 'हाजी मुराद' का अनुवाद किया (प्र.सं. 2008, दूसरा सं. 2023) और उन पर उनके परिजनों, मित्रो, लेखकों आदि के 30 संस्मरणों का अनुबाद 'तोलस्तोय का अंतरंग संसार' (प्र.सं. 2014) किया। कहानी और उपन्यास के साथ इन विधाओं की पुस्तकों पर भी लिखा।
कथा साहित्य और कथेतर पुस्तकों पर लिखने का जो सिलसिला 1986 से प्रारंभ हुआ वह 1996 तक तेज गति से चलता रहा। साप्ताहिक हिन्दुस्तान, रविवार, सारिका, इंडिया टुडे, अक्षरा, कथाबिंब, सम्बोधन आदि पत्रिकाओं और जनसत्ता, दैनिक हिन्दुस्तान, राष्ट्रीय सहारा, आदि पत्रों में मैंने नियमित लिखा। 1995 में कमलेश्वर जी ने अपने एक पत्र में मुझे लिखा, "तुम एक सशक्त कथाकार हो, इसलिए मेरी सलाह है कि समीक्षाएं लिखना बंद कर दो।"
कमलेश्वर जी के साथ उन्हीं दिनों मेरे आत्मीय संबन्ध स्थापित हुए थे। उनकी सलाह पर मैंने गौर किया। लिखना तो बंद नहीं हुआ, लेकिन कम अवश्य हुआ। लिखता आज भी हूँ लेकिन केवल पुस्तक का परिचय मात्र फेस बुक में देता हूँ, जिससे पाठक उस पुस्तक को पढ़ने के लिए उत्साहित हों। कभी-कभी किसी उल्लेखनीय कृति पर किसी पत्रिका के लिए भी लिखता हूँ।
मैंने जब भी पढ़ा उत्कृष्ट साहित्य ही पढ़ा और किसी पत्र-पत्रिका में लिखने के लिए अच्छी कृति का ही चयन किया। खोजकर विश्व के महान लेखकों को पढ़ा तो भारतीय लेखकों को भी। समीक्षा या आलोचनात्मक आलेख लिखते समय सदैव भाषा और पाठक की पठनीयता का खयाल रखा। वरिष्ठ कथाकार काशीनाथ सिंह जी आलोचना को रचना मानते हैं तो स्व. कवि विजेन्द्र जी भी रचना ही मानते थे। मैं भी रचना ही मानता हूँ और भाषा विलास के खिलाफ हूं। यदि बात पाठक तक सम्प्रेषित ही न हो सके तब उसके लिखने का क्या अर्थ !
प्रारंभ से 2019 तक विभिन्न विधाओं और विभिन्न भाषाओं की पुस्तकों पर मेरी लिखी आलोचना और समीक्षा की दो पुस्तकें 'समकालीन साहित्य : आलोचनात्मक विवेचन' और 'समकालीन भारतीय साहित्य आज का यथार्थ' 2020 में प्रकाशित हुई थीं। इसके अतिरिक्त साहित्यिक आलेखों की पुस्तक 'प्रसंगवश' (2021) में प्रकाशित हुई थी। 'अभिनव सम्बोधन' पत्रिका में 2017-2019 मैंने 'प्रसंगवश' स्तंभ के लिए जो आलेख लिखे थे उनके साथ वीणा (मासिक) में प्रकाशित आंचलिक कहानियों पर लंबा आलेख और 'आजकल' में प्रकाशित उपन्यासों पर लिखा आलेख इस पुस्तक में सम्मिलित हैं।
'साहित्य और साहित्यकार एक मूल्यांकन' में कहानी, उपन्यास, कथेतर विधाओं के साथ मैंने कुछ साहित्यकारों पर लिखे अपने आलेख समाहित किए हैं। आशा है सुधी पाठक मेरी पूर्व प्रकाशित पुस्तकों की भांति इस पुस्तक का भी स्वागत करेंगे।
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