पुस्तक परिचय
हिमालय प्राचीन काल से ही भारतीय धर्मभावना में पुनीत क्षेत्र रहा है। नदियों और उनके तट पर बरो तीथों की पावनता भी अनादिकाल से चली आ रही है। देवी-देवताओं की पवित्र रखाली के रूप में भी यह क्षेत्र पौराणिक आख्यानों से युगों तक छाया रहा। साध्यकाल में लोकधर्म की अपेक्षा युद्ध जीवन का सत्य बना। वस्तुत गडकल को अपनी सत्ता और सुरक्षा के लिए पूरा फयकाल समस्त उत्तराखंड में सत्ता के संघर्ष का काल रहा जिसमे युद्ध शूर वीरता, भढ़वाली और रोमान का बोलबाला रहा। मध्यकाल शीर्य और सामती जीवन मूल्यों का ही नहीं, धार्मिक आन्दोलन का भी समय रहा। फलत इस काल में रची गई अधिकाश गाधाओं में शैव, शाक्त, कबीरपंथी तथा नाथपंथी प्रभाव के भी दर्शन होते हैं। इस प्रकार धर्म और यथार्थ जैसे कई आख्यानों में गडमड हो गए है। गढ़वाली लोक गाथाओं को मुख्यतः 4 वर्षों में विभक्त किया जा सकता है-जागर, पवाडे, चैती तथा प्रणय गाथाएँ। वीरता और प्रणय का भाव में वीरता का भाव भी है। इसलिए उनका शुद्ध विभाजन कठिन कार्य है। इसी प्रकार चैती गाथाओं में प्रणय का सामती तत्त्व भी निहित है। इसलिए उन्हें भी प्रणय गाथाओं से अलग करना कठिन है। फिर भी वे शुद्ध प्रणय गाथा नहीं है। लोकगाथाओं में कई चीजे जोडी और घटाई जाती रहती हैं केवल कुछ अंश ही स्थिर रहते हैं। एक प्रकार की वर्णनात्मक और नाटकीय शैली और लय की समानता होने के कारण सभी लोक गाथाओं में भाषा का प्रवाह होता है तथा भावों, अभिप्रायों, टेक तथा वाक्यों या वाक्यांशों की पुनरावृत्ति से एक प्रकार की सुसंबद्धता बनाई रखी जाती है। लोक-गाथाओं का मंचीय पक्ष यह है कि जागर में बाकायदा 'घडियाला' या मंडाणा लगता है, देवता नृत्य करता है प्रस्तुत पुस्तक गढ़वाल की लोक संस्कृति और लोक गाथाओं को भावी पीढ़ी के लिए संरक्षित रखने के संदर्भ में एक मौलिक एवं गंभीर कार्य है।
लेखक परिचय
डॉ. गोविंद चातक (19.12.1933) 09.06.2007) लोक साहित्य के मर्मज्ञ, महान साहित्यकार डॉ गोविंद चातक का जन्म 19 दिसम्बर, 1933 में ग्राम सरकासैणी, लोस्तु, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखण्ड में हुआ। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा मसूरी, प्रयाग और देहरादून में सम्पन्न हुई तथा आगरा विश्वविद्यालय से उन्होंने पीएच डी. की, कुछ समय वे गढ़वाल के लोकगीतों के संकलन में लगे रहे। विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने गढ़वाली लोकगीतों के संकलन प्रकाशित कर समाज के सम्मुख प्रस्तुत किए। 1960 में उन्होंने आकाशवाणी, दिल्ली में सहायक नाट्य निर्देशक के रूप में चार वर्ष का कार्यकाल पूरा किया। इसके उपरांत 1964 में उन्होंने राजधानी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में लेक्चरर का पद संभाला और 1993 में रीडर के पद से सेवानिवृत हुए। इस दौरान उन्होंने पैतालीस से भी अधिक पुस्तकें लिखी। उनका महत्त्वपूर्ण कार्य लोकगीत, भाषा, नाट्यलोचन और संस्कृति के विविध आयामों से संबंधित रहा है। है। उन्होंने कई कोश ग्रंथों एवं एवं पुस्तकों का संपादन कार्य बखूबी निभाया। साहित्य सेवा में उनके अमूल्य योगदान को विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं ने कई पुरस्कारों से सम्मानित भी किया। वे उ.प्र. हिंदी संस्थान, साहित्य कला परिषद्, पर्यावरणा मंत्रालय, हिंदी अकादमी (दिल्ली), उत्तराखण्ड साहित्यकार सम्मान, संस्कृति एवं कला परिषद उत्तराखण्ड आदि से सम्मानित हैं।
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