विश्व के साहित्य में श्रीमद्भगवद्गीता एक ऐसा अद्भुत ग्रन्थ है जो मानवता के पथ पर चलने वाले किसी भी मनुष्य के लिए सदा प्रेरणा का स्त्रोत बना रहेगा। उपनिषदों को वेदों का सार और गीता को उपनिषदों का सार कहा जाता है। भक्ति, ज्ञान और कर्म की त्रिवेणी का नाम है गीता। युद्ध क्षेत्र में भी सत्कर्म करते हुए आत्मोद्धार का मार्ग बताने वाला ऐसा ग्रन्थ हमारे समक्ष गीता ही है जिसमें धर्म मे नाम पर खण्डन और मण्डन का वर्णन न होकर आत्मकल्याण के साथ विश्व कल्याण के लिए मंगल उपदेश है। धर्म के विषय में कथात्मक और प्रश्नात्मक शैली में लिखित गीता हमें कर्म संन्यास और संन्यास कर्म के मध्य निष्काम भाव से कर्म करने का निरन्तर संदेश देकर अहंकार रहित होकर जीते हुए सत् चित् आनन्द के पथ पर चलने का संदेश देता है। श्री कृष्ण और अर्जुन के संवाद के माध्यम से धर्म के गूढ़ रहस्यों का रोचक वर्णन करने वाला ऐसा ग्रन्थ दूसरा नहीं रचा गया है। कथात्मक शैली में रचित ग्रन्थों में गीता मर्म भेदिनी दृष्टि देने वाला ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें जीव, जगत, माया और प्रकृति का वर्णन करते हुए मनुष्य को चिन्तनशील बनकर ज्ञान-सागर से वैसे मोती चुनने की सीख देता है जो कर्म के मर्म समझाकर उसे धर्म बना दे।
महर्षि व्यास ने गीता के बारे में बताते हुए लिखा है-
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शाखाविस्तरै।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता ।।
गीता सुगीता अर्थात् गायन करने योग्य है, अर्थ और भाव सहित यह अन्तःकरण में धारण करने योग्य है जो स्वयं पद्मनाभ भगवान् श्री विष्णु के मुखारविन्द से निकली है।
गीता अध्ययन का अधिकार सभी को है चाहे वह किसी भी वर्ण, आश्रम में स्थित हो श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हुए स्वयं कहा है-
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽिप स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ।।
(गीता ९.३२)
हे अर्जुन ! स्त्री, शूद्र तथा पापयोनि चाण्डालादि जो कोई भी मेरे शरण होकर परमगति को ही प्राप्त होते हैं। इस ग्रन्थ में कर्मयोग ज्ञानयोग की अपेक्षा भक्ति योग की प्रधानता दिखलाया गया है। भक्ति के लिए समर्पण की भावना पर बल दिया गया है।
धर्म के नाम पर अपना पथ चलाने वाले ने बड़ी चतुराई से तर्क रखते हुए खण्डन और अपने सिद्धान्त का पोषण किया है पर भगवान श्री कृष्ण ने गीता में स्पष्ट कहा है कि कर्म काण्ड में भी यदि निष्काम भाव से भक्ति मेरे प्रति निवेदित होती है तो उसे मैं संहर्ष स्वीकार करता हूँ।
पत्रं पुष्यं फलं तोयं योमे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ।। (गीता ९.२६)
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