यह पुस्तक लिखने का काम मैंने क्यों हाथ में लिया? इस प्रश्न का उत्तर, संगीत की स्मृतियों के गलियारों से मेरी आकर्षक यात्रा में निहित है। मेरा संबंध बंगाल के उन अग्रणी परिवारों से था, जहां पिछले कई दशकों से कला को प्रश्रय दिया जाता रहा था। स्वाभाविक ही था कि मैंने कला और संगीत के अनेक मनीषियों को जाना। इन लोगों ने मेरे जीवन को प्रेरित और प्रभावित किया। मुझे उन्हें निकट से जानने का, उनका आध्यात्मिक सान्निध्य प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
मेरी मां, जानी-मानी फिल्मी हस्ती एवं रवीन्द्र संगीत की सुविख्यात गायिका, अरुन्धती देवी, आकाशवाणी की प्रतिष्ठित कलाकार थीं। बाद में, मेरे सौतेले पिता श्री तपन सिन्हा ने साहित्य और कला के क्षेत्र की अनेक गणमान्य हस्तियों से मुझे परिचित कराया। मेरा जीवन उनकी छाया में बीता और उनके जाने के बाद भी मुझ पर उनका गहरा प्रभाव रहा। मुझे उनका आशीर्वाद प्राप्त करने का दुर्लभ सुयोग मिला। उनमें से कुछ लोगों, जिनके व्यक्तित्व में महानता का समावेश था, के साथ मेरी निकटता और मैत्री भी रही। पंडित रविशंकर से मेरा परिचय 1956 में हुआ। उस समय वह तपन सिन्हा की प्रसिद्ध फिल्म 'काबुलीवाला' के लिए संगीत निर्देशन कर रहे थे। इसी फिल्म के लिए उन्हें बर्लिन फिल्म समारोह में प्रतिष्ठित सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पुरस्कार मिला। उसी समय से भारतीय शास्त्रीय संगीत की अद्वित्तीय विरासत के प्रति मेरी दीक्षा और अनुराग शुरू हुआ।
पंडित रविशंकर के प्रति मेरे मन में हमेशा से विस्मय की भावना रही है। अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद, वह मेरी एकान्तिक संगीत साधना में मेरा मार्गदर्शन करने, मुझे प्रेरित करने में सदैव तत्पर रहे। उनका अनुपम संगीत, संगीत के विकास का उनका ज्ञान और सबसे बढ़कर एक अच्छे इन्सान के उनके स्वाभाविक गुण, उस समय खुलकर सामने आए, जब उन्होंने अपने गुरु के जीवन के विभिन्न पक्षों के बारे में मुझे बताया। वह वास्तव में मंत्रमुग्ध कर देने वाला अनुभव था।
मुझे आचार्य अलाउद्दीन खां के योग्य पुत्र और सरोद के सर्वश्रेष्ठ कलाकार, उस्ताद अली अकबर खां साहेब से मिलने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। उन्होंने और पंडित रविशंकर ने भारतीय वाद्य परंपरा को विश्वभर में प्रतिष्ठा दिलाई। मैं अली अकबर साहेब के स्नेह, परामर्श और इस पुस्तक को पूरा करने में सहायता के लिए, उनकी आभारी हूं।
इन दोनों महान कलाकारों के सहयोग से ही, मैं, बाबा की समृद्ध संगीत परंपरा से परिचित होने का सौभाग्य प्राप्त कर सकी।
भारतीय शास्त्रीय संगीत के इस संत-मनीषी मैहर के गुरु, बाबा अलाउद्दीन खां साहेब ने मुझे कहीं बहुत गहरे, प्रभावित किया है। वह बच्चों को भरपूर स्नेह देते थे और मुझे दस वर्ष की अल्पायु में उनके दर्शनों का अवसर प्राप्त हुआ। फिर 1958 से तो मैं उस परिवार के बहुत निकट रही, जब उस्ताद अली अकबर खां ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर की सुप्रसिद्ध कथा 'क्षुधित पाषाण' पर, तपन सिन्हा के सुयोग्य निर्देशन में बनने वाली फिल्म के लिए संगीत दिया।
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