हँसिए और खूब हँसिए; दिल खोलकर हँसिए । जब जब पढ़िए गुनिए, तब तब हँसिए । हसन-प्रहसन का यही राज है। बड़े-बड़ों की हँसी-दिल्लगी का आनंद तो सब लोग बहुत उठाते हैं। रामजी जब वन गए तब बाबा तुलसीदास ने भी चुटकी ली। बिचारे बूढ़े ऋषिगण बड़े प्रसन्न हुए कि उनके मंजुल पद-पंकज के स्पर्श से सारो शिलाएँ चंद्रमुखियाँ हो जायेंगी, बुढ़ौती आनंद से कटेगी । अब जरा उन लोगों की दिल्लगी, हास-परिहास का भी मजा लीजिए जो संसार में इसी लिए निर्मित हुए हैं। संस्कृतवालों ने प्रहसन में वेश्याओं, धूर्तों, अना-चारी ब्राह्मणों आदि की कथाएँ इसी लिए रखी है। उसमें भाव-विभाव भाव-बेभाव के मिलेंगे । आजकल चलचित्रों के संसार में जब शृंगारी प्रदर्शन शिष्टता से परे हो जाता है, तब उसे 'केवल वयस्कों के लिए' स्वीकार करते हैं। संस्कृत काव्यलोक में प्रहसन को वैसा ही समझना चाहिए ।
प्रारंभ में जब हास्यार्णव पढ़ा तब कुछ ऐसी ही बात चित्त में आई। सोचा कि आखिरकार उसके पात्रों की भी तो जिंदगी है और उसमें भी रस है। संस्कृतवालों ने जैसे सबका रस लिया वैसे ही इन लोगों का भी; और वह रस केवल अपने ही नहीं पान किया, सबको कराया। उन्होंने उसे हास्य का समुद्र कहा, किंतु रसरूप ने उसे हास्यमय की संज्ञा दी जिसमें ग्रंथ की कथा और हास्य एकाकार होकर रहे। आगे चलकर भारतेंदु बाबू इससे कुरीति-संशोधन का काम लेने लगे - यह बात और है। हिंदी का तो सबसे हास्यमय है। इसमें राजा हरबोंग के पुत्र अनयसिंधु की विशेषण होने पर लंठ, गँवार, मूर्ख का बोधक है, और पुराना प्रहसन यही कथा है। देसी हरबोंग संज्ञा होने पर उत्पात, कुशासन, अव्यवस्था का। संस्कृत का अनसिंधु अनीतिसागर भी यही है। जैसा बाप वैसा पूत । हास्यमय में दोनों के गुण एकाकार हैं।
हास्यार्णव (हास्यमय ) की लीथो की प्रति मेरे पुस्तकालय में थी । संस्कृल हास्यार्णव भी देखने में आ चुका था। दोनों को मिलाने पर हिंदी हास्यमय की अपनी विशिष्टता व्यक्त हुई। जब संस्कृत प्रहसनों के इतिहास पर ध्यान गया तब अनुमान हुआ कि हास्यार्णव-वर्णित विषय बहुत प्राचीन है। विक्रमीय सातवीं पाती से इसका रूप दक्षिण से विकसित हो रहा है। पुराने प्रहसन जैसे मत्त-विलास आदि दक्षिण में ही लिखे गए। फिर रचना में स्थानवाचक अनेक नाम बाराणसी के मिलने से तथा अन्य कारणों से शंखघर-कृत लटकमेलक और जग-वीश्वर कृत हास्यार्णव वाराणसी में रचे जान पड़ते हैं। किंतु इनमें उल्लिखित राड़, राहीय शब्द बंगाल का संबंध भी इंगित करते हैं। राजशेखर ने भी कर्पूरमंजरी में ऐसा ही संकेत किया है। (दे० अंक १, छंद १४ के पश्चात् वैतालिक की उक्ति)। सी० आर० लानमैन ने इसे पश्चिमी बंगाल का जिला बताया है (दे० स्टेन कोनोव संपादित कर्पूरमंजरी, हारवर्ड ओरिएंटल सिरीज, सन् १९६३ ई०, १० २२६-२२७) । वज्जालग्ग में इसे बंगाल का एक नगर बताया गया है। (गंजणरहिओ धम्मो राढाइत्ताण संपडइ) । प्रबोध-चंद्रोदय में भी इसे बंगाल की एक नगरी कहा गया है (गौड राष्ट्रमनुत्तमं निरुपमा तत्रापि राढ़ापुरी)। ज्योतिषतत्त्व के अनुसार यह स्थान पूर्व दिशा में मगधशोण के सान्निध्य में था (प्राच्यां मागधशोणीच वारेन्द्रीगौडराढ़काः। पर बात कुछ जमी नहीं। लटकमेलक को देखकर ऐसा भासित हुआ कि इसका मंबंध दक्षिण से होना चाहिए। इसमें राढ़ीया वचन-रचना के प्रसंग में कुमारिल भट्ट और प्रभाकर का नाम आया है (दे० अंक २, श्लोक १६) । फिर उसके साथ ही एकदंडी शंकराचार्य तथा ब्रह्ममोमांसा आदि के प्रकरण आए हैं। इतना ही नहीं, जिस महाराज गोविंदचंद्र कन्नौजाधिपति की आज्ञा से, जिनके शासन में वाराणसी क्षेत्र भी था, यह ग्रंथ लिखा गया है, उनके पूर्वज दक्षिण से ही आए थे-ऐसा इतिहासप्रसिद्ध है। यदि वे काशी के ही रहे होते तो राजकुमारों को बनारसी बोली (भोजपुरी) की शिक्षा देने के लिए दामोदर पंडित को 'उक्ति व्यक्तिप्रकरण' रचने की क्या आवश्यकता थी। लटकमेलक के संपादक श्री कपिलदेव गिरि कहते हैं कि बारहवीं शती के राजा लक्ष्मणसेन के राज्यकाल में दक्षिण से जो ब्राह्मण बंगाल आए थे वे राड़ीय कहलाए। (दे० भूमिका पृ० १, तथा अंक २, पृ० ३८, चौखंभा विद्याभवन सं०)। किंतु इसमें भी कुछ त्रुटि है। यदि राड़ीय संज्ञा दाक्षिणात्य ब्राह्मणों को बंगाल में बारहवीं शती में मिली तो दसवीं शती में राजशेखर ने कर्पूरमंजरी में राढ़ा शब्द का व्यवहार कैसे किया। अतः स्पष्ट है कि यह शब्द दसवीं शती या उससे भी पूर्व प्रचलित था । यह भी ध्यान देने योग्य है कि लटकमेलक के कर्ता शंखघर के आश्रयदाता भी कन्नौजाधिपति थे, और राजशेखर भी कन्नौजाधिपति महेंद्रपाल, महीपाल आदि से संबद्ध थे, तथापि राजशेखर स्वयं दाक्षिणात्य थे। ऐसी स्थिति में राढ़ शब्द का दक्षिण से कोई संबंध होना संभाव्य है। हिंदी के हास्यमय को देखकर इसमें कुछ बल मिलता है। नाट्यहेतु के प्रसंग में रसरूप ने लिखा है कि इस प्रहसन के अभिनय के लिए महाराज तैलंगपति ने नट को आज्ञा दी। (दे०, अंक १, छंद ५) । तैलंगपति नाम दक्षिण का ही उद्घोष कर रहा है। इन सारी बातों से ऐसा भासित होता है कि प्रहसन की रचना दक्षिण भारत से आरंभ हुई और उसी के संपर्क से उत्तर में भी इसका प्रचार-प्रसार हुआ। हिंदी हास्यमय से बंगाल का यह संबंध बिलकुल छूट गया ।
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