मानव जीवन के लिए उसका मनोशारीरिक रूप से स्वस्थ्य होना आवश्यक है, क्योंकि स्वस्थ्य शरीर में ही स्वस्थ्य मस्तिष्क का निवास होता है। यद्यपि मानव के सफल जीवन यापन हेतु मनोशारीरिक स्वास्थ्य का उत्तम होना आवश्यक है, परन्तु स्वास्थ्य के अनेक अवरोधक हैं जो न केवल व्यक्ति में निहित हैं अपितु बाह्य परिस्थितियों के माध्यम से भी व्यक्ति के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। इस परिस्थिति में व्यक्ति उन नियामकों की शरण में जाता है. जो उसके स्वास्थ्य को प्रोन्नत करके सकारात्मकता का संचार करते हैं। भारतवर्ष में स्वास्थ्य सेवाओं तथा मानसिक स्वास्थ्य उन्नयन हेतु मनोवैज्ञानिकों की सापेक्षिक कमी है। अतः भारत वर्ष में उन नीतियों का निर्माण एवम् उनके अनुप्रयोग की नितांत आवश्यकता है, जो व्यक्ति के स्वास्थ्य स्तर की मात्रा में वृद्धि कर सकें। प्रस्तुत पुस्तक का यही सार है और हमें यह विश्वास है कि यह पुस्तक न केवल स्वास्थ्य मनोविज्ञान के ज्ञान की वृद्धि में सहायक होगी, अपितु स्वास्थ्य मनोविज्ञान के साहित्य के मध्य मील का पत्थर होगी।
प्रोफेसर अनुभूति दूबे (पी.एच.डी.) दीनदयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय, गोरखपुर में मनोविज्ञान विभाग के आचार्य एवं विभागाध्यक्ष पद पर कार्यरत हैं। 1998 से उपरोक्त विश्वविद्यालय में कार्य करते हुए उन्होंने 50 शोधपत्रों को राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित किया है तथा 40 शोधपत्रों को संपादित पुस्तकों में प्रकाशित किया है। उनके निर्देशन में 14 विद्यार्थियों को पी. एच डी. उपाधि मिली है तथा एम.ए. और एम.फिल के 150 विद्यार्थियों ने अपना शोध प्रबन्ध पूरा किया है। उन्होंने 1 1 पुस्तक का लेखन तथा 8 पुस्तकों का संपादन किया है। ये जी.एफ.ए.टी.एम राउंड-7 की परियोजना मास्टर ट्रेनर भी थीं।
प्रोफेसर आराधना शुक्ला (पी.एच.डी.) पूर्व संकायाध्यक्ष कला एवं अध्यक्ष मनोविज्ञान विभाग कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल में 35 वर्षों की शैक्षणिक एवं प्रशासनिक सेवाएं देने के उपरान्त संप्रति एस एस जे विश्वविद्यालय अल्मोडा में सीनियर फेलो (भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली) के रूप में अपनी सेवाएं दे रही हैं। यहाँ से पूर्व वे गोरखपुर विश्वविद्यालय एवं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में कार्यरत रहीं। उनके निर्देशन में 52 विद्यार्थियों को पी एच.डी की उपाधि मिल चुकी है तथा उन्होंने 5 विशद परियोजनाएं पूर्ण करने के साथ 16 पुस्तकों का लेखन एवं 200 शोधपत्रों को राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित किया है। उनको 15 राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सम्मान एवं पुरस्कार भी प्राप्त हो चुके हैं।
समदोषः समाग्निश्च समधातु मलःक्रिया।
प्रसन्नात्मेंद्रियमनः स्वस्थइति अभिधीयते ।।
सुश्रुत संहिता 5/10
वह व्यक्ति जिसमें तीनों द्रव या दोष (वात, पित्त, कफ) संतुलित हैं, जिसकी सुधा व पाचन संतुलित हैं, जिसके शरीर के सातों तंतु (सात धातु अर्थात् रस. सम, मांस, मज्जा, अस्थि तथा शुक्र) सामान्य रूप से कर्म कर रहे हों, जिसका मल (मूत्र, विष्ठा, चिर) सामान्य रूप से निसृत होता हो, तथा जिसकी आत्मा, अनुभूति तथा मस्तिष्क (सत्व, रज तथा तम) सकारात्मक हो वही व्यक्ति स्वस्थ है, तथा उसी में अपराजयत्व न्यवसित है।)
स्वास्थ्य की उपरोक्त परिभाषा विश्व स्वास्थ्य संगठन की अधुनातम परिभाषा के समकक्ष है। आयुर्वेद में स्वास्थ्य के सभी पैरामीटरों, जैसे शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य तथा आध्यात्मिक स्वस्ति की व्याख्या की गई है। आयुर्वेद के अनुसार वह व्यक्ति स्वस्थ्य है जिसके मन, शरीर व आत्मा सामान्य अवदशा में हैं तथा समयानुकूल वांछित व परिस्थिति जन्य समस्त क्रिया-कलाप सामान्य रूप से घटित होते हैं। किसी भी व्यक्ति का पूर्णरूपेण स्वस्थ होना थोड़ा असंभव है क्योंकि परिस्थितिजन्य कारकों की भूमिका भी नगण्य नहीं है। अतः अच्छे स्वास्थ्य. की परिधि में आने के लिए व्यक्ति को शरीर, मन एवं आत्मा का स्वस्थ्य होना और समाज में स्वीकृत्य (Acceptable) होना अत्यंत आवश्यक है। एक स्वस्थ्य और संतुलित व्यक्ति ही गुणवत्ता पूर्ण जीवन जीता है और अपने परिश्रम के माध्यम से अपने अभीष्ट को प्राप्त कर सकता है। अतएव प्रत्येक व्यक्ति का स्वस्थ्य रहना उसका अपने लिए और समाज के लिए नितांत आवश्यक है, ताकि तन, मन से एक स्वस्थ्य समाज की स्थापना हो सके तथा आरोग्यता का विकास हो।
उपरिलिखित कथन से स्पष्ट है कि जिस प्रकार व्यक्ति के सामान्य जीवनयापन हेतु धन की आवश्यकता है, उसी प्रकार मनोशारीरिक स्वास्थ्य की गुणवत्ता भी अनिवार्य है।
समय की ताल के साथ तथा पूर्व एवं पाश्चात्य विचारों के सुमेल के फलस्वरूप सभ्यता, संस्कृति एवं लोक व्यवहार के आयामों में वृद्धि व अनेक अंतर भी दृष्टिगोचर हुआ। बढ़ते हुए प्रदूषण, मनोसामाजिक अवदशाएं व विकार तथा आर्थिक होड़ के कारण व्यक्ति के स्वास्थ्य का ह्रास हुआ और उसके मनोशारीरिक स्वस्ति में भी गिरावट आई। कुंठा, अवसाद, प्रतिबल जैसी मनोवैज्ञानिक विसंपतियों ने व्यक्ति के स्वास्थ्य एवं प्रतिमा को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया और मानसिक स्वास्थ्य के नकारात्मक आयाम उसको धूमिल करने लगे। इन्हीं सामाजिक विसंगतियों के मध्य सकारात्मक मनोविज्ञान के समर्थकों के मन में एक जिज्ञासा जगी कि (1) व्यक्ति के नकारात्मक मानसिक स्वास्थ्य को कैसे पता लगाया जाए और उसमें सकारात्मकता की उत्पत्ति किस प्रकार से की जाए (ii) वे कौन से कारक हैं जो व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य को नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं तथा (iii) किन नियामकों को प्रयोग करके व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य को प्रोन्नत किया जा सकता है?
उक्त जिज्ञासाओं की अनुसंधित्सा हेतु ""स्वास्थ्य मनोविज्ञान"" नामक इस पुस्तक के सृजन का विचार किया गया। ""स्वास्थ्य मनोविज्ञान"" लेखकों की लंबी यात्रा, खट्टे-मीठे अनुभवों तथा गहन अध्ययन का फल है। इसमें आरोग्यता के संप्रत्यय, बाधक, नियामक तथा गत वर्ष में आरोग्य मनोविज्ञान की स्थिति को सुस्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। इसके साथ ही लेखकों का यह भी प्रयास है कि आरोग्यता हेतु युक्तियों को भी प्रस्तुत कर सकें। उत्तर भारत के प्रायः सभी हिंदी शासित प्रदेशों के विश्वविद्यालयों में स्नातक व परास्नातक स्तर पर स्वास्थ्य मनोविज्ञान का प्रश्न पत्र पाठ्यक्रम में सम्मिलित है। हम आशा करते हैं कि स्वास्थ्य मनोविज्ञान के अध्येता एवं शिक्षक इस पुस्तक का लाभ लेंगे। आपकी गहनशीलता व स्वस्थ्य विचार हमें इस पुस्तक के आगामी संस्करण हेतु संभावनाएं प्रदान करेंगे। Miles to go before we sleep, miles to go before we sleep.
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