हेमचन्द्र के 'सिंद्धहेमशब्दानुशासन' पर प्रथम विद्वत दृकपात 1877 में तब हुआ जब, पिशल (एक प्रसिद्ध जर्मन विद्वान) ने इसके प्राकृत अंश का संपादन किया। इस दिशा में अन्य पश्चिमी विद्वानों में जैकोबी और आल्सफोर्ड का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इसके किसी न किसी न पक्ष पर यथा समय कार्य करने वाले विद्वानों में डॉ० गुणे, महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री, डॉ० हीरालाल जैन, डॉ० पी० एल० वैद्य, मुनिजिनविजय, डॉ० उपाध्ये, डॉ० वेलणकर, डॉ० शहादुल्ला, डॉ० प्रबोधचन्द्र और डॉ० भयाणी के नाम इस दिशा में उल्लेखनीय हैं। इसी पंरपरा के विद्वानों के कार्यों को हिन्दी में गति-मति देने वालों में राहुल सांकृत्यायन, आचार्य केशव प्रसाद मिश्र, एवं चन्द्रधर शर्मा गुलेरी और आचार हजारी प्रसाद द्विवेदी का नाम बड़ी श्रद्धा के साथ लिया जा सकता है।
प्राकृत भाषा प्राचीन भारतीय आर्य भाषा और नव्यभारतीय आर्य भाषा के बीच का वह मध्यवर्ती पड़ाव है, जिसके अभाव में भाषा के समग्र इतिहास की कल्पना ही नहीं की जा सकती। जहाँ तक इसकी व्याकरणिक परंपरा का प्रश्न है, उसका एक ऐतिहासिक अनुक्रम प्राप्त है। यह अनुक्रम इस प्रकार है - वररुचिः-प्राकृत प्रकाशः चण्डः प्राकृतलक्षणा; हेमचन्द्रः सिद्धहेम -शब्दानुशासन; त्रिविक्रमः व्याकरण; सिद्धराजः प्राकृत रूपावतार; रघुनाथ शर्माः - प्राकृतानन्द; लक्ष्मीधर-षद्भाषा; चन्द्रिका मार्कण्डेयः प्राकृतसर्वस्व; शुभचन्द्रः - शब्दचिन्तामणि; नरसिंहः प्राकृतशब्द दीपिका; अप्पयदीक्षितः व्याकरणोः समन्तभद्रः - प्राकृत प्राकृतमणि। इसके अतिरिक्त रावण द्वारा लिखित प्राकृत कामधेनु भी सुनी जाती है। संस्कृत से प्राकृत और प्राकृत से अपभ्रंश अपेक्षाकृत सरल है। 'प्रकृतिः संस्कृतं तत्र भवं, तत आगतं वा प्राकृतं' - यह हेमचन्द्र के शब्दानुशासन का सबसे अधिक विवादग्रस्त वाक्यांश है। इसका मनमानी अर्थ करने से अनेक प्रकार के भ्रम पैदा हुए। इस ग्रन्थ में मैं उन सभी का निरसन करने का प्रयत्न करूंगा। अन्य वैयाकरणों ने इसी सूत्र को अपने ढंग की अभिव्यक्ति दी है। प्रकृतिः संस्कृतं तत्र भवं प्राकृतमुच्यते (मार्कण्डेय); प्रकृतेः आगतं प्राकृतम्। प्रकृतिः संस्कृतम्। (धनिक, दशरूपकटीका); प्रकृतेः संस्कृतात् आगतं प्राकृतम्। (वाग्भटालंकार की टीका); प्रकृतिः संस्कृतं तत्र भवत्वात् प्राकृतम्। (सिंहदेव गणी, प्राकृत चन्द्रिका); प्रकृते संस्कृतायास्तु विकृतिः प्राकृती मता (प्राकृत शब्द प्रदीपिका; प्राकृतस्य तु सर्वमेव संस्कृतयोनिः (कर्पूरमंजरी)।
डॉ० हरदेवबाहरी (प्राकृत भाषा और उसका साहित्य, राजकमल प्रकाशन पृ० 13) ने लिखा है 'प्राकृत से वेद की साहित्यिक भाषा का विकास हुआ है, प्राकृतों से संस्कृत का विकास भी हुआ और प्राकृतों से इनके अपने साहित्यिक रूप भी विकसित हुए'। डॉ० बाहरी का कथन अपने स्थान पर ठीक है किन्तु वे जिस प्राकृत की बात कर रहे हैं वह वर्तमान में उपलब्ध प्राकृत नहीं है, अपितु वह कोई जनभाषा रही थी, जिसकी संज्ञा प्राकृत थी।
उपर्युक्त सभी मंतव्य एक पथीय हैं ही नहीं। इनके आलोक में जो तथ्य सामने आते हैं, वे इस प्रकार हैं -
(क) प्राकृत शब्द छान्दस् संस्कृत से निरस्त है, लौकिक संस्कृत से नहीं।
(ख) प्राकृत में सामान्यतः विभाषाओं का विकास देश भेद एवं काल भेद से हुआ है।
(ग) छांदस् और संस्कृत में मूर्धन्य ध्वनियों का अस्तित्व प्राकृत तत्त्वों को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है।
(घ) छान्दस के पूर्व की भाषा जनभाषा थी। इसके बीज अथर्ववेद में उपलब्ध हैं।
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