बोलने का आधार ग्रीवा से उच्चारित की जाने वाली-गिरा-कण्ठ से ध्वनियों की ऐसी सुश्रंखिल शब्द-राशि निकालना जो एक विशेष समाज के मनुष्यों द्वारा उच्चरित होने पर उस उच्चरित रूप के अर्थों को समझने-समझाने में समर्थ हो। इस तरह सामाजिक सम्पर्क का साधन है-वाक् या गिरा जहाँ वाक् और अर्थ से मिलकर सामाजिक संपर्क को सुगम बनाती है। जिसे हम भाषा के माध्यम से ही इस संसार में रहने वाले मनुष्य अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करता है। अभिव्यक्ति का यह आधार विभिन्न विभिन्न प्रकृति क्षेत्रों के अनुरूप विभिन्न-विभिन्न भाषा परिवारों, भाषा-समूहों, उपभाषा समूहों, बोलियों के रूप में उद्भाषित और प्रतिभाषित होता चला जाता है। समय, काल परिस्थितियों के अनुसार व्यक्ति बोली से शुरू हो समाज-ग्राम-कस्बे शहर होते हुए राज्य भाषा से लेकर राष्ट्रभाषा और अंतरराष्ट्रीय भाषा स्तर तक यह प्रतिष्ठित होता है। भाषा के इन्हीं रूपों में जिन्हें हम बोली से कुछ बड़े रूप में जिसे भाषा कह सके-फिलहाल गढ़वाल क्षेत्र में प्रचलित भाषा विशेष-गढ़वाली भाषा के विषय में कुछ विस्तार से समझने की कोशिश कर रहे है।
गढ़वाली भाषा क्षेत्र विस्तार भाषा जनसाधारण द्वारा आपसी जनसंपर्क की सुविधा के लिए गढ़ी गयी संरचना है। जन सामान्य की बसावट-पृथ्वी के विशेष अंश पर होती है। अतएव पृथ्वी की भौगोलिक प्राकृतिक संरचना-टोपो लोजी उस समाज की बसावट और पारस्परिक मेल-जोल की सुविधा असुविधा का भी आधार बनी होती है। पृथ्वी का आकार-प्रकार यदि समतलीय है, तो समाज सुविधापूर्वक मिलने-जुलने का एक विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र पाने से पारस्परिक मेल-जोल बढ़ाने वाली बोली का एक विस्तृत क्षेत्र सुविधापूर्वक पा जाता है। परंतु जहाँ समतलीय भूमि क्षेत्र न होकर पहाड़-पहाड़ियों से घिरे क्षेत्र जो खड़ी ऊँची-ऊँची पहाड़ी चोटियाँ, नदियाँ, झीलों हों वहाँ के निवासियों के सहजता से न मिल पाने से दूसरे पार के समीपवर्ती समाज की बोलियों को भी समझ पाने में असमर्थ होते है, ऐसी परिस्थिति में एक विशेष वर्ग की भाषा बोली होने पर भी उसमें भिन्न-भिन्न वर्ग की भाषाओं की भिन्नता का आभास होता है। जैसा कि नगावर्गीय भाषाओं में देखा जाता है। जहाँ विभिन्न ऊँची पहाड़ियों में व्यवधान होने के कारण 14 प्रकार की नगा-बोलियाँ 14 भिन्न नगा भाषाओं जैसी प्रतीत होती हैं।
भारत वर्ष में भौगोलिक संरचना और ऐतिहासिक प्रभावों के चलते भाषाओं-बोलियों के प्रभावों में जो परिवर्तन होते रहते है उस दृष्टि से सुस्पष्ट वैज्ञानिक समझ अंग्रेजी शासन काल में स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। जब संपूर्ण भारत वर्ष की भाषाओं का सर्वेक्षण कार्य तीन बड़े क्षेत्रों- 1. पश्चिमी मध्य और पूर्वी क्षेत्र कश्मीर को मिलाते हुए-भाषा सर्वेक्षण सर जार्ज अब्राहम ग्रिर्यसन, 2. दक्षिण भाषाओं का सर्वेक्षण विशप काल्डवेल और नेपाली-तिब्बती पहाड़ी क्षेत्रों का सर्वेक्षण टर्नर महादेय की देखरेख में करवाया गया। गढ़वाली भाषा या बोली क्षेत्र उस समय गिर्यसन के सर्वे के अंर्तगत ही था किंतु दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र होने और उस बोली विस्तार-नेपाल जैसे भिन्न देश के क्षेत्र में होने से उसके उत्तरी अंश का सर्वे टर्नर महोदय ने व्यापक रूप से किया था, जिसे उन्होंने अपने नेपाली डिक्शनरी नामक ग्रंथ में विस्तार से प्रकाशित किया था।
भाषाओं के महत्व को स्वीकार करते हुए भौगोलिक और ऐतिहासिक आधारों के उल्लेख के साथ ही तात्विक दृष्टि से भौगोलिक विस्तार क्षेत्र का महत्व सर्वोपरि है। गढ़वाली भाषा का क्षेत्र विस्तार साम्प्रतिक भारत के उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर की डोंगरा रियासत के पार्श्ववर्ती भू-भाग तक फैला ही है। नेपाल जैसे पृथक देश के भू भाग में भी यत्र तत्र फैला है।
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