मानव विवेक-प्रधान प्राणी है। वह सदा अपनी विचार-शक्ति का प्रयोग करता आया है। उसके विवेक एवं विचार ने ही उसे सर्वप्राणियों में मूर्धन्य सिद्ध किया है। इस विचित्र रूप से दृश्यमान जगत् में मानव का मस्तिष्क व्याकुल हो उठा इन जिज्ञासाओं से- "मैं क्या हूं? कहां से आया हूं ? यह दृश्यमान वस्तुजात क्या है? इसका वास्तविक स्वरूप क्या है? इसकी उत्पत्ति कैसे हुई और कहां से हुई ?" इसी भूमिका पर विचार-शास्त्र की प्रवृत्ति हुई, जिसे दर्शन-शास्त्र का नाम दे दिया जाता है। पाश्चात्य लोग इसे फिलासफी के नाम से पुकारते हैं।
वैज्ञानिक ढंग से सोचने पर पता चलता है कि दर्शन-शास्त्र की प्रवृत्ति बौद्धिक विनोद मात्र के लिए ही नहीं हुई। अनादि काल से मानव अनेक प्रकार के दुःखों = कष्टों से जूझता चला आ रहा है। इन दुःखों की हम तीन श्रेणियां परम्परा से मानते आ रहे हैं (१) आधिभौतिक, (२) आधिदैविक एवं (३) आध्यात्मिक दुःख । भूतों अर्थात् प्राणियों (सांप, बिच्छु, सिंह, व्याघ्र तथा शत्रु मनुष्यों) से प्राप्त होने वाले दुःख आधिभौतिक हैं, शीत, उष्ण तथा अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि दैवी कोप से होने वाले आधिदैविक दुःख हैं और रोग पीड़ा आदि से होने वाले शारीरिक एवं शोक भय आदि से होने वाले मानस दुःख आध्यात्मिक हैं।
स्वाभाविकतया दुःख-पीड़ित मानव दुःखों से छुटकारा पाने के लिए विचार करता है-"ये दुःख कैसे दूर हों, सर्वदा अनुकूल-वेदनीय सुख की प्राप्ति कैसे हो। दुःख निवृत्ति एवं सुख की प्राप्ति ही मुख्य पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ का अर्थ है पुरुष द्वारा अर्थनीय अर्थात् पुरुष की इच्छा का विषय। सुख प्राप्ति का उपाय तथा दुःख-निवृत्ति का उपाय भी पुरुषार्थ बन जाता है, पूर्वोक्त दोनों मुख्य पुरुषार्थों का हेतु होने से। अतः एव अर्थ और काम पुरुषार्थ कहलाते हैं, क्योंकि अर्थ धन सम्पत्ति से तथा काम विषयोपभोग से सुख की प्राप्ति और दुःख की निवृत्ति होती है। अर्थ एवं काम ही सर्व-साधारण पुरुषार्थ मान लिए जाते हैं।
किन्तु अनियन्त्रित अर्थ, काम से दुःखों की भी प्राप्ति होती देखी गई है। प्रायः सामाजिक दुःखों की वृद्धि अनियन्त्रित अर्थ, काम से होती है। अतः इनका नियन्त्रण करने के लिए धर्म को प्रथम पुरुषार्थ माना गया है। दूसरे दुःख एक बार दूर होकर भी पुनः पुनः आता रहता है, अतः सर्वदा के लिए दुःख की सर्वदा निवृत्ति पुरुष के लिए अभीष्ट रहती है। इस आत्यन्तिक दुःख-निवृत्ति को ही निश्रेयस अथवा मोक्ष नाम दिया गया है। इसे ही परम पुरुषार्थ माना जाता है।
तो मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य है मोक्ष अर्थात् दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति एवं अपने आनन्दमय स्वरूप में अवस्थिति और इसकी सिद्धि के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक है अर्थ एवं काम पर धर्म का नियन्त्रण। धर्म से नियन्त्रित अर्थ काम से ऐहिक तथा पारलौकिक सुख की प्राप्ति होती है और निष्काम धर्माचरण द्वारा अन्तःकरण शुद्ध हो जाने से ज्ञान का उदय होकर मोक्ष रूप परम पुरुषार्थ की सिद्धि सुलभ है। भारतीय शास्त्रों में पुरुषार्थ-चतुष्टय के नाम से धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की प्रसिद्धि परम्परा से चली आ रही है। इसी में मानव जीवन की सफलता निहित है।
परन्तु उल्लिखित पुरुषार्थ-चतुष्टय की सिद्धि पदार्थों के तत्त्व-ज्ञान के बिना नहीं हो सकती। यह तत्त्व-ज्ञान ही दर्शनशास्त्र का विषय है। अर्थ एवं काम से प्राप्त होने वाला सुख तथा दुःखभाव तभी सम्भव है जब कि भौतिक पदार्थों का ज्ञान हमें प्राप्त हो। आज भौतिक पदार्थ-ज्ञान एक स्वतन्त्र शास्त्र का विषय बन गया है और यह क्रियात्मक शोध से सम्पुटित होकर पदार्थ-विज्ञान अथवा साइंस कहलाने लगा है। इसके चमत्कारी आविष्कारों ने मानव के अनेकानेक दुःखों को दूर किया है, और उसे सुखसमृद्ध बनाया है, किन्तु नित्य सुख या परम आनन्द जिसे निःश्रेयस अथवा मोक्ष का नाम दिया जाता है, उसकी सिद्धि केवल भौतिक तत्त्वज्ञान से नहीं हो सकती। उसके लिए आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान की आवश्यकता है। भौतिक एवं आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान ही अन्त में आत्म-अनात्मविवेक द्वारा मूल-तत्त्व तक पहुंच सकता है जो कि आत्मा-परमात्मा अथवा ब्रह्म कलहाता है और जिसकी प्राप्ति में ही समस्त दुःखों से मुक्ति एवं परमानन्द की उपलब्धि निहित है। भारतीय दर्शनों की प्रवृत्ति इसी मौलिक उद्देश्य से हुई है। इन दर्शनों को हम दो भागों में रखते हैं-वैदिक-दर्शन एवं अवैदिक-दर्शन। वैदिक-दर्शन वेद को प्रमाण मान कर चलते हैं। अवैदिक-दर्शन वेद की अपेक्षा नहीं रखते ।
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