हमारे यहाँ कहा गया है- "काव्यशास्त्र विनोदेन कालोगच्छति धीमताम्।" अर्थात् काव्य और शास्त्र द्वारा प्राप्त विनोद या आनंद में यह जीवन सुरुचिपूर्ण ढंग से व्यतीत हो जाता है। शास्त्रज्ञान की परिगणना काव्य हेतुओं में होती है। प्रतिभा के बाद व्युत्पत्ति को काव्य का हेतु माना गया है। व्युत्पत्ति के अंतर्गत काव्येतर सभी प्रकार के शास्त्रों को अंतनिर्हित कर लिया जाता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि भारतीय परंपरा में काव्य और साहित्य एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। जिस कवि या साहित्यकार का शास्त्रज्ञान विपुल और समृद्ध होगा उसके काव्य में उनकी अधिक प्रौढ़ता दृष्टिगत होगी। गोस्वामी तुलसीदास विरचित 'रामचरित मानस' भारतीय जनता विशेषतः उत्तर भारतीय जनता के कंठ का श्रृंगार इसलिए तो है कि वह 'नाना पुराण निगमागम सम्मत' है। अतः सुसंस्कृत एवं सुशिक्षित व्यक्ति के लिए साहित्य और शास्त्र उभय का ज्ञान आवश्यक है। जिन्होंने इन दोनों का अध्ययन किया है उनका भाग्य तो सर्वोपरि है। जिन्होंने शास्त्र नहीं पढ़ा केवल साहित्य पढ़ा है वे थोड़े कम भाग्यशाली हैं। किन्तु जिन्होंने शास्त्र पढ़ा है, पर साहित्य नहीं पढ़ा उसका भाग्य तो मंदातिमंद है। इस अर्थ में मैं स्वयं को भाग्यशाली समझती हूँ क्योंकि प्रारंभ से ही साहित्य के पठन-पाठन में मेरी विशेष अभिरुचि रही है। प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के वर्षों में अन्य शास्त्रगामी विषयों की तुलना में भाषा साहित्य के विषयों में मेरी रूझान कुछ अधिक थी। गुजराती, हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी पढ़ने में विशेष आनंदानुभूति होती थी। अतः हाई स्कूल के उपरान्त उच्चतर शिक्षा हेतु मैंने कला या विनयन में प्रवेश लेना ही अधिक उचित समझा। भाषा साहित्य के विषयों में भी मेरी अभिरुचि हिन्दी साहित्य के प्रति कुछ अधिक थी। अतः बी.ए. तथा एम.ए. में मुख्य विषय के रूप में मैंने हिन्दी का ही वरण किया था। उसमें भी कथा-साहित्य की ओर शुरू से ही लगाव था। चित्रलेखा तथा दिव्या जैसे उपन्यासों के कारण उपन्यास साहित्य की ओर मेरा ध्यान गया और प्रेमचंद, जैनेन्द्र, अज्ञेय, यशपाल, रेणु, कमलेश्वर, प्रभृति उपन्यासकारों के कतिपय उपन्यासों को मैंने शौकिया तौर पर पढ़ा। बी.ए. और एम.ए. ये दोनों उपाधियाँ मैंने हमचंद्राचार्य उत्तर गुजरात युनिवर्सिटी से हाँसिल की है। सन् 1994 में मेरा विवाह हुआ और मैं बड़ौदा आ गई। विवाह के उपरान्त मेरे मन में आगे पढ़ने और बढ़ने की विशेष लगन थी। अतः महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष डॉ० पारूकान्त देसाई साहब से मिली। उन्होंने अपने विभाग के दो-तीन वरिष्ठ पी-एच.डी. मार्गदर्शकों के नाम सूचित किए। इसी उपक्रम में मैंने डॉ० भगवानदास कहार के मार्गदर्शन में अपना अनुसंधान कार्य करने का निश्चय किया। विषय-चयन हेतु तीन-चार बार उनसे भेंट हुई। हाई स्कूल के दिनों में मनोविज्ञान भी मेरा एक विषय था और उपन्यास साहित्य के प्रति एक विशेष आकर्षण तो था ही अतः डॉक्टर साहब ने मुझे उपन्यास और मनोविज्ञान के संदर्भ में शोध करने का सुझाव दिया और खुब सोच-विचार चिन्तन-मनन के पश्चात् यह विषय चयन किया- "हिन्दी के मनोवैज्ञानिक उपन्यासों में मनोवैज्ञानिक क्षण, ग्रंथियों, समस्याओं एवं कामकुंठाओं का चित्रण।"
शोध-प्रबंध कुल सात अध्यायों में विभक्त है- 1. हिन्दी के मनोवैज्ञानिक उपन्यास : प्रवृत्ति एवं परंपरा, 2. मनोवैज्ञानिक उपन्यास सैद्धांतिक निरूपण, 3. हिन्दी के मनोवैज्ञानिक उपन्यासों में मनोवैज्ञानिक क्षणों का निरूपण, 4. हिन्दी के मनोवैौनिक उपन्यासों में मनोवैज्ञानिक ग्रंथियों का निरूपण, 5. हिन्दी के मनोवैज्ञानिक उपन्यासों में मनोवैज्ञानिक समस्याओं का निरूपण, 6. हिन्दी के मनोवैज्ञानिक उपन्यासों में मनोवैज्ञानिक काम-कुंठाओं का निरूपण और 7. उपसंहार।
उपर्युक्त अध्यायों में चर्चित, विश्लेषित एवं संशोधित मुद्दों और बिंदुओं का उल्लेख 'अनुक्रमणिका' के अंतर्गत कर दिया है। यथासंभव शोध प्रक्रिया एवं प्रविधि का अनुसरण मैंने किया है। प्रत्येक अध्याय के अंत में निष्कर्ष एवं संदर्भानुक्रम दिए गए हैं। 'उपसंहार' के अन्तर्गत समूचे शोध-प्रबंध का सार संक्षेप, निष्कर्ष, उपादेयता, उपलब्धियाँ तथा भविष्यत् संभावनाओं को उकेरा गया है। प्रबंध के अंत में 'संदर्भिका' -Bibliography- के अन्तर्गत चार परिशिष्ठों में सहायक सामग्री तथा आधारभूत ग्रंथों एवं पत्र-पत्रिकाओं का उल्लेख अकारादिक्रम से किया गया है।
हमारी परंपरा में गुरु का महत्व अपरिहार्य है। गुरु ब्रह्मा, विष्णु और महेश की भूमिका अदा करते हैं। ब्रह्मा के रूप में वह अपने शिष्य के व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं, विष्णु के रूप में उसे इस योग्य बनाते हैं कि वह अपना तथा परिवार का पालन-पोषण कर सके और महेश के रूप में वह उसकी त्रुटियों और खामियों का निर्ममता पूर्वक संहार करते हुए उसे इस विश्व-कुरुक्षेत्र के लिए सुसज्ज करते हैं। सदभाग्य से इस कार्य हेतु मुझे दो गुरुओं का आशीर्वाद मिला है- एक तो मेरे मार्गदर्शक डॉ० भगवानदास कहार साहब और दूसरे हिन्दी विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष प्रोफेसर पारूकान्त देसाई साहब। देसाई साहब ने न केवल अपनी अनुमति प्रदान की, बल्कि ऐसी स्वयं की लायब्रेरी खड़ी करने की अतः प्रेरणा भी दी। अतः इन दोनों के प्रति पितृ-भाव रखते हुए श्रद्धा सुमन समर्पित करती हूँ।
मेरे यहाँ तक के विद्याकीय विकास में मेरे पति श्री केतन ठक्कर जो मेरे एफ. एफ.जी. - फ्रेण्ड, फिलोसोफर एण्ड गाइड रहे हैं, तथा मेरा परिवार, श्वसुर-पक्ष तथा पितृ-पक्ष और आफ कोर्स मेरा नन्हा सा कन्हैया रुचित, मेरे साथ रहे हैं। उनके सहयोग के बिना कुछ भी संभव नहीं था। अतः उनका उल्लेख मैं आवश्यक समझती हूँ।
इनके अतिरिक्त उन विद्वानों एवं विदूषियों के प्रति मैं अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ जिनके कृतित्व से मैं लाभान्वित हुई हूँ। प्रेरणा एवं प्रोत्साहन हेतु मैं साम्प्रतिक विभागीय अध्यक्षा डॉ० शैलजा भारद्वाज, मेरे अन्य सहभागी मित्र तथा कला-संकाय के तत्कालीन डीन प्रोफेसर नीतिन व्यास तथा विश्वविद्यालय के विद्याप्रेमी कुलपति डॉ० रमेश गोयल साहब को हृदय पूर्वक आभार एवं धन्यवाद ज्ञापित करती हूँ।
प्रथमतः इसका प्रकाशन मेरे पति श्री केतन ठक्कर ने अपने वैयक्तिक दायित्य पर किया था, अतः उसका व्याप थोड़ा कम रहा। किसी पुस्तक या ग्रन्थ का प्रकाशन का अकादमिक संतोष तो तभी होता है, जब अधिक से अधिक अधिकारी विद्वानों की नज़र से वह गुजरे कोई प्रतिष्ठित एवं व्यावसायिक संस्था ही इसे अंजाम दे सकती है। अतः शोध-प्रबंध का किंचित संशोधित रूप "हिन्दी के मनोवैज्ञानिक उपन्यास : एक विश्लेषणात्मक अध्ययन" चिंतन प्रकाशन, कानपुर से प्रकाशित हो रही है, यह मेरे लिए अतीव हर्ष का विषय है।
मेरे मानक गुरु प्रोफेसर देसाई साहब सदैव कहते हैं कि विश्वविद्यालय में अध्यापक होने का अर्थ निरंतर विद्यार्थी रहना है। जो आजीवन विद्यार्थी रहना चाहता है, उसे ही क्षेत्र में पर्दापण करना चाहिए, अन्यथा पैसे कमाने के रास्ते तो और भी बहुतेरे हैं। विश्वविद्यालय के शिक्षकों को न केवल पढ़ाना है; उसे तो अपने शोध-लेखों, निबंधों और पुस्तकों के जरिए दूसरे विश्वविद्यालयों के छात्रों तक अपना ज्ञान संक्रमित-सम्प्रेषित करना है और इस प्रकार अपने विद्याकीय कार्य को एक मुकाम तक पहुँचाना है। मेरी यह पुस्तक उस दिशा में उठाया हुआ महत्त्वपूर्ण कदम है।
अपनी बुद्धि-मति तथा सामर्थ्य की सीमाओं से मैं भली-भाँति अवगत हूँ। अपनी तरफ से मैंने हर संभव प्रयत्न किया है कि इस कार्य को सम्पूर्णता एवं त्रुटिहीनता से संपन्न करूँ, परन्त मनुष्य तो मनुष्य ही है। कहीं-न-कहीं त्रुटि दोष तो रह ही जाता है। अतः ऐसी त्रुटियों के लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ। मेरा यह कार्य शोध-अनुसंधान और विद्या के क्षेत्र में किंचित भी वृद्धि करता है तो मैं स्वयं को कृतार्थ समझेंगी।
अंत में महान जर्मन नाट्यकार बेटौल्ट ब्रेख्त (1898-1956) की विश्व विख्यात निम्नलिखित पक्तियों को उधृत करने का मोह-संवरण नहीं कर पा रही हूँ-
"हर चीज़ बदलती है
अपनी हर आखिरी साँस के साथ
तुम एक ताज़ा शुरुआत कर सकते हो।"
Hindu (हिंदू धर्म) (13443)
Tantra (तन्त्र) (1004)
Vedas (वेद) (714)
Ayurveda (आयुर्वेद) (2075)
Chaukhamba | चौखंबा (3189)
Jyotish (ज्योतिष) (1543)
Yoga (योग) (1157)
Ramayana (रामायण) (1336)
Gita Press (गीता प्रेस) (726)
Sahitya (साहित्य) (24544)
History (इतिहास) (8922)
Philosophy (दर्शन) (3591)
Santvani (सन्त वाणी) (2621)
Vedanta (वेदांत) (117)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist