केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा अपने शैक्षिक गतिविधियों के साथ हिंदीतर भाषाओं के हिंदी अध्येताओं के पठन-पाठन, अध्ययन-अध्यापन एवं व्यावहारिक ज्ञान के लिए उनकी आवश्यकता तथा माँग के अनुरूप शिक्षण सामग्री निर्माण करने का भी कार्य करता है।
यह कार्य आगरा मुख्यालय स्थित 'पूर्वोत्तर शिक्षण सामग्री निर्माण विभाग' द्वारा किया जाता है। यह विभाग हिंदी प्रान्तों तथा हिंदीतर प्रान्तों के मध्य ऐसे सेतु का निर्माण करता है। जिसकी राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय संदर्भों में अपनी एक विशिष्ट पहचान है। इस विभाग की महत्वाकांक्षी योजनाएँ 'भारतीय लोक साहित्य, लोक-रंग, लोक-संस्कृति, लोक-कला, कला, ज्ञान-विज्ञान, दर्शन, राष्ट्रीय-सामाजिक चेतना जैसे विषयों का विषय विशेषज्ञों द्वारा चयन संपादन कर संगोष्ठियों, कार्यशालाओं तथा शोधपरक माध्यमों से सामग्री निर्माण कर उसका प्रकाशन करना है।
"पूर्वोत्तर शिक्षण सामग्री निर्माण विभाग" द्वारा मेघालय राज्य सरकार की माँग पर - पाँचवीं, छठवीं तथा सातवीं कक्षा तथा सिक्किम राज्य सरकार की प्राइमरी कक्षा एक से आठ - तक की पाठ्य पुस्तकों का निर्माण कार्य किया जा चुका है। राजकीय हिंदी संस्थान, दीमापुर (नागालैंड) की पूर्व निर्मित पुस्तकों का भी संशोधन परिवर्धन कर पाठ्य पुस्तक रूप में प्रकाशन कार्य किया जा चुका है।
उत्तर-पूर्व राज्यों की सात लोक भाषाएँ असमिया, बोड़ो, खासी, कॉकबराक, मणिपुरी, लोथा, और मिज़ो भाषा की लोक कथाओं एवं लोक-गीतों का भी प्रकाशन विभाग द्वारा किया जा चुका है।
इसी क्रम में हिंदीतर राज्यों के लिए अध्येता कोशों के निर्माण की महत्वाकांक्षी योजना के अंतर्गत पूर्वोत्तर राज्यों की भाषाओं तथा बोलियों पर लगभग 42 अध्येता कोशों का प्रकाशन कार्य किया जा चुका है। द्विभाषीय अध्येता कोश निर्माण परियोजना के विस्तार में हिंदी प्रदेश की उपभाषा हिंदी-कुमाउनी अध्येता कोश का निर्माण है। इस पहाड़ी उपभाषा में खंड में अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, नैनीताल, हल्द्वानी आदि क्षेत्र आते हैं। सामान्यतः कुमाउनी भाषा इन्हीं क्षेत्रों में बोली जाती है।
इस उपभाषा (बोली) का मानक स्वरूप विकसित नहीं हुआ है। हिंदी खड़ी बोली की अति निकट की बोली जाने वाली कौरवी बोली भाषा-भाषी क्षेत्रों के अति निकट होने के कारण इसका योगदान व्यावहारिक हिंदी अर्थात् परिनिष्ठित हिंदी के निर्माण में महत्वपूर्ण रहा है। पठन-पाठन, ज्ञानसंवर्धन एवं बोली संरक्षण की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए प्रचलित, अप्रचलित तथा लुप्त होते जा रहे शब्दों के शब्द चयन, शब्द विन्यास प्रणाली, वर्णानुक्रम, पदबंधों, लोकोक्तियों, मुहावरों, सामासिक शब्दों, पर्याय, शब्दों के अर्थ तथा अर्थ प्रयोजनों के अनुसार समझाया गया है।
आंचलिक परिप्रेक्ष्य में इस उपभाषा का अधिकतम साहित्य लोक धरातल पर ज्यादा मुखर है। जो अपनी बोली के विकास क्रम की गति को बढ़ाता रहा है। समयांतर के साथ इसमें विदेशी आगत शब्दों का भी समावेश होता रहा है।
चूँकि मानकीकरण की क्रिया में कुमाउनी भाषा की पहचान सुनिश्चित की जा रही है। अतः यह मानकर की हिंदी की निकटतम वर्णानुक्रम व्यवस्था के अनुसार ही इसका अंतिम रूप तैयार किया गया है।
वर्तमान संदर्भ में शब्दकोश हिंदी में पारिभाषिक रूप ले चुका है। यह स्थिति हिंदी कुमाउनी आदि भारतीय भाषाओं की भी है। परन्तु कोश शब्द भंडार के अर्थ में प्रयुक्त होने से साधारण भंडार हो न समझ लिया जाए। जो कि कोष होता है। अतः मुद्रा भंडार या रुपयों का संग्रह की जगह बैंक-वगैरह के लिए 'राज-कोष' वगैरह से भिन्न सूचित करने के लिए शब्दकोश तालव्य 'श' से लिखते हैं।
ध्यान देने की बात यह है कि शब्दकोश शब्द मात्र का कोश या भण्डार नहीं होता इसमें निरर्थक शब्द भी बहुत होते हैं। परन्तु शब्दकोश में निरर्थक शब्द नहीं जुटाए जाते। सार्थक शब्द भी जो किसी पद-पदार्थ-विशेष्य-वस्तु-भाव-संज्ञा-सर्वनाम-क्रिया आदि के वाचक होते हैं उनका बोध कराते हैं। उन्हें ही शब्दकोशों में संग्रहित किया जाता है।
इस तथ्य की ओर इसलिए ध्यान आकर्षित किया गया है कि भाषाओं की प्रामाणिक समझ के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समूचे विश्व में समान रूप से ध्वनियों के प्रामाणिक उच्चारण को समझने के लिए जैसे- इंटरनेशनल फोनेटिक अल्फाबेट जिसे संक्षेप में आई.पी.ए. की लिपि बनाई गई है। उसी तरह शब्दकोशों के लिए भी एक भाषा वाला दूसरी भिन्न भाषा के शब्दकोशों को आसानी से और अच्छी तरह से उस भाषा में शब्द को खोज सके।
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