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हिन्दी साहित्य में युगीन बोध- Hindi Sahitya Mein Yugeen Bodh

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Displaced Discourse

Tribal Discourse

Postmodern Discourse

Dalit Discourse

Women's Discourse

Media Discourse

Specifications
Publisher: Chintan Prakashan, Kanpur
Author Shailja Bharadwaj
Language: Hindi
Pages: 544
Cover: HARDCOVER
8.5x5.5 inch
Weight 720 gm
Edition: 2022
ISBN: 9788188571352
HBM910
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Book Description

सम्पादकीय

हिन्दी साहित्य ने लगभग डेढ़ हज़ार वर्षों का इतिहास पूरा कर लिया है। किसी देश के जनमानस की मनोवृत्ति, दशा एवं संवेदना के विविध स्वरूपों का संचित रूप वहाँ के साहित्य में परिलक्षित होता है और जनमानस की दशा और संवेदनाओं के विभिन्न धरातल उस युग विशेष की परिस्थितियों और विचारधाराओं से नियमित होते हैं एवं ये विचारधाराएँ और परिस्थितियाँ तद्युगीन समाज के अन्तर्विरोधों की क्रोड़ से उत्पन्न होती है। हर काल की राजनीति, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, साहित्यिक परिस्थितियों के बीच चिन्तनशील प्राणी अपने अन्तर्मन में उनका विश्लेषण करता है और उस चिन्तन से ही युगीन बोध की चेतना पल्लवित होती है जो युग परिवर्तन की दिशा को गत्यात्मकता प्रदान करती है। यह युग बोध ही विमर्शों को जन्म देता है।

हिन्दी साहित्य का आरम्भिक दौर ही अपने आप में तयुगीन परिस्थितियों के बीच युग बोध की चेतना के प्रतिफलन का साहित्य है जिसने समाज के चिन्तन की दिशा मोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। यद्यपि इसका प्रस्थान विन्दु लोकायत दर्शन एवं गौतम बुद्ध की चेतना से जुड़ते हैं जिन्होंने अपने समय के दर्शनों के विरुद्ध हस्तक्षेप किया। भारतीय समाज चूँकि धर्म एवं अध्यात्म के दर्शनों से परिचालित था या यूँ कहें कि विभाजित था इसलिये उस काल की युगीन चेतना का बोध, धर्म-दर्शन की विभिन्न व्याख्याओं एवं मिथ्या आडम्बरों, अन्ध-विश्वासों और परम्परागत रूढ़िवादिता के खण्डन के रूप में अभिव्यक्त हुआ।

निर्गुण संतों के द्वारा तत्कालीन समाज में एक प्रकार की वैचारिक क्रांति का उदय हुआ और परम्परागत रूढ़िवादिता पर इन्होंने गहरा प्रहार किया। कबीर, नानक, दादू, हरिदास, निरंजनी आदि संतों ने जिस रूप में अपने विचार व्यक्त किये हैं इनका आधार कोई एक विचारधारा या मतवाद नहीं है। अद्वैतवाद, वैष्णवों की भक्ति भावना, सिद्धों, नाथों की सहज, साधना आदि का जिस पद्धति से इन्होंने समन्वय किया वह उनका युग बोध ही पुष्ट करता है।

यह युगीन बोध ही था जिसने अराजकता, साम्प्रदायिक वैमनस्य एवं विश्रृंखल होते समाज को समन्वित करने के लिये तुलसीदास को 'रामचरित मानस' के रूप में रामकथा की पुनर्रचना नये दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने को प्रेरित किया। आधुनिक भारत का युगीन बोध एक तरफ समाज सुधारकों की युगीन चेतना का प्रतिफलन था, जिसे हिन्दी के भारतेन्दु युगीन, द्विवेदी युगीन, प्रेमचन्द युगीन, प्रेमचन्दोत्तर युगीन, साहित्यकारों ने पुष्ट किया है।

वर्तमान समय अनेक चुनौतियाँ लेकर आया है। वर्तमान सामयिक समय में भूमण्डलीकरण के आर्थिक दबाव एवं अर्थ के इर्द-गिर्द घूमने वाले मूल्यों ने सामाजिक सरोकार एवं मानवीय सरोकार की संवेदना को कुंठित करना प्रारम्भ कर दिया है।

आर्थिक लाभ एवं तथाकथित विकास की प्रक्रिया में भूमि हस्तांतरण, अलगाववाद एवं वैचारिकी से उत्पन्न आतंकवाद ने बहुत बड़ी संख्या में जातीय संहार ethnic cleansing करना प्रारम्भ कर दिया है जो सामाजिक एवं सांस्कृतिक पहचान की दृष्टि से चिन्तनीय विषय है एवं सरोकार की हकदार है।

आतंकवाद, अलगाववाद, भूमि हस्तांतरण, भूमण्डलीकरण की क्रय-विक्रय संस्कृति के बीच से 'विस्थापन का साहित्य' यूँ कहें विस्थापितों का साहित्य मानवीय छटपटाहट को दर्ज कर रहा है, जो विमर्श की अपेक्षा रखता है। अन्तर्राष्ट्रीय बाजार की विकराल बहुभुजाओं के बीच जकड़े हुए टेक्नो श्रमिक, सूचना क्रान्ति के नाम पर मीडिया का विकराल वर्चस्व, चिंता के विषय हैं।

साहित्य में इन साम्प्रत समस्याओं और युगीन बोध की अभिव्यक्ति में बनते विमर्श विचारणीय मुद्दे हैं। वस्तुतः समकालीन परिवेश ही विमर्शों को जन्म देता है जो बौद्धिक एवं संवेदनशील मानव के सरोकार को अभिव्यक्त करते हैं

हिन्दी साहित्य अपने युगीन परिवेश से कितना सम्पृक्त रहा है एवं सामयिक समस्याओं की चुनौती को किस प्रकार समाधान की दिशा में मोड़ा जा सकता है इसके अध्ययन विवेचन के लिये महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय के कला संकाय के हिन्दी विभाग द्वारा यू.जी.सी. के संयुक्त तत्वावधान में 4 और 5 दिसम्बर 2009 को द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी का उद्घाटन म.स. विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. रमेश गोयल ने किया। वरिष्ठ समीक्षक प्रो. शिवकुमार मिश्र ने अपने बीज वक्तव्य में कहा- 'जिस समय को आज हम जी रहे हैं, काल के अन्तर प्रवाह का वह सबसे कठिन, सबसे क्रूर, सबसे हिंस्र, नितांत मानवद्रोही और रचनाद्रोही समय है। आदमी की हवस, सुख भोगवाद की उसकी तृष्णा उसे जिस हद तक स्वार्थी, लोभ, लंपट, आत्मकेन्द्रित, संवेदनशून्य और जड़ बना सकती है, उसे अपने बाज़ारवाद की माया में बेसुध, अपने समाज के नए धनाढ्य वर्ग तथा उदित हुए नए मध्यमवर्ग के जीवन संदर्भों और आचरण में हमने अपनी आँखों से बखूबी देखा और अनुभव किया है। ऐसी स्थिति में आदमी के सृजनधर्मी प्रयासों, उसकी आदमियत के भयानक क्षरण के जीवन में जो कुछ भ्रम और सुन्दर बचा हुआ है, उसे भी लील लेने को आमादा इस क्रूर समय में युगबोध की समकालीनता, वाग्धर्मिता और मानवीय अर्थवत्ता के बाहर यदि कोई रचनाशीलता हो सकती है, तो निश्चय ही वह असहमति, अस्वीकार और प्रतिरोध की रचनाशीलता ही होगी। शिवकुमार मिश्र ने आज की विसंगतियों एवं समय की क्रूरता के बीच टकराने वाली ऊर्जा को, जो निःशेष नहीं हो सकी है, इसे उपलब्धि स्थापित किया।

शिमला से पधारे हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के निवर्तमान संस्कृत विभागाध्यक्ष, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के भूतपूर्व उपकुलपति प्रो० 'अभिराज' राजेन्द्र मिश्र ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में युगबोध के मानवीय सरोकारों के पड़ावों को विशद् फलक पर प्रस्तुत किया।

डॉ० रघुवीर चौधरी, डॉ० भोलाभाई पटेल, प्रो० महावीर चौहाण, प्रो० रंजना अरगडे, डॉ० अर्जुन चौहाण, प्रो० रतन कुमार पाण्डेय, डॉ० सुशील धर्माणी, प्रो० दयाशंकर, डॉ० मदनमोहन शर्मा, डॉ० आलोक गुप्ता जैसे विद्वानों ने हिन्दी साहित्य में युगीन बोध के प्रतिफलन के रूप में बनते विस्थापित विमर्श आदिवासी विमर्श, उत्तर आधुनिक विमर्श, दलित विमर्श, नारी विमर्श, मीडिया विमर्श पर आज की चुनौतियों के साथ समीक्षात्मक विचार प्रस्तुत किये।

स्वतंत्रता के बाद शोषित एवं उपेक्षित समुदाय के प्रति सरोकार एवं उनसे जुड़े प्रश्नों पर विमर्श एक विचारणीय मुद्दे के रूप में साहित्य में उभरा। यह 'दलित विमर्श' के नाम से अभिहित हुआ। इस विमर्श के केन्द्र में वे शोषित हैं जिन्होंने परम्परागत रूढ़ियों के अनन्तर जाति वर्ण के नाम पर एवं क्षमताओं के नाम पर उपेक्षा एवं मानवीय अपमान भोगा है। मराठी साहित्य में पचास के दशक की चिंगारी हिन्दी साहित्य के साथ ही भारतीय साहित्य की विचारधारा की प्रमुख चेतना बनी। दलितों द्वारा लिखी गयी स्वानुभूति की मार्मिकता ने कई नये साहित्यकारों की खेप की शुरुआत की और इसी के साथ ही समीक्षा के मापदंड में दलित विमर्श के नये आयाम खुले। इस द्विदिवसीय संगोष्ठी के द्वितीय सत्र में दलित साहित्य की उ‌द्भावना से जुड़े विवाद, दलित साहित्य में उठाये गये प्रश्न, दलित साहित्य में नारी चेतना एवं दलित विमर्श की दृष्टि से हिन्दी की कृतियों का समीक्षात्मक अवलोकन किया गया।

स्वतंत्रता के बाद दलित विमर्श की तरह' नारी विमर्श' साहित्य एवं आलोचना के क्षेत्र में मुख्य विचारधारा के रूप में सामने आया जिसका विकास 20वीं सदी के अंतिम दो दशकों में तीव्र गति से हुआ। अपने 'मानव' होने की खोज के साथ ही अपने मानवीय अधिकारों, अपने सम्मान एवं अपनी अस्मिता के लिये संघर्ष, नारी की अपनी पहचान की तलाश के रूप में साहित्य में एक सशक्त विमर्श उभरा जिसे युगीन बोध की सशक्त अभिव्यक्ति के रूप में देखा जाना चाहिए।

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