Jagai Dharma Hindu Sakal Bhand Bhajai
वक्त गुलशन पे पड़ा, तो लहू हमने दिया। अब बहार आई तो कहते हैं-तेरा क्या काम है?
प्रिय पाठकवृन्द । स्वतंत्रता देवी की आराधना के लिए इस देश के अगणित वीरों ने फाँसी व गोली खाईं तथा काले पानी आदि की जेलों में भयंकर पाशविक यातनाओं को भी सहर्ष स्वीकार किया, पर स्वतंत्र वायु मिलने पर गलत शिक्षा नीति ने चन्द लोगों को महान बनाकर बैसाखियों पर टांग हमारे सामने खड़ा कर दिया। हमारी सारी सोच को विकृत करने का प्रयास किया गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि स्कूल की किताबों से शहीदों की परपरा ही नहीं गौण कर दी गई, बल्कि बड़े-बड़े स्वतन्त्रता आन्दोलन जानबूझ कर गायब कर दिये गये। यद्यपि उन वीरों ने अपनी कुर्बानी के बदले कोई मान, धन, यश व प्रतिष्ठा नहीं चाही, पर राष्ट्र को तो कृतज्ञ होना चाहिए था। उस दौर का स्मरण कर मेरा मन बागी हो जाता है जब पचास वर्ष बाद पहली बार १८५७ के विद्रोह को भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम सिद्ध करके अंग्रेजों की धरती पर ही अंग्रेजों के अन्याय का विरोध करने के कारण बन्दी बनाए गये, २७ वर्ष काला पानी व भारत की जेलों में तथा नजरबन्दी में बिताने वाले वीर सावरकर का तैल चित्र संसद भवन में लगाने का विरोध करने की नीचता भी इस देश के कर्णधारों ने की। दुर्भाग्य तो यह है कि इस कृतघ्नता का सूत्रपात भी भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री ने किया। व्यक्तिगत विचार भिन्नता के कारण ही गाँधी हत्या के मामले में वीर सावरकर को कैद किया गया। वे वर्ष भर स्वतंत्र भारत की जेल में रहकर ससम्मान मुक्त हुए। अप्रैल १९५० में पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री लियाकत अली भारत आये, तो वीर सावरकर को पुनः बन्दी बना लिया और १३ जुलाई १९५० को एक वर्ष तक राजनीति में भाग न लेने की शर्त लगाकर रिहा किया। देश पर चीन का आक्रमण हुआ, तो सावरकर सदन पर गुप्तचरों की संख्या बढ़ा दी गई। सबसे दुःखद बात तो यह है कि नेहरु जी ने अपने जीते जी उन्हें स्वतंत्रता सेनानी भी नहीं माना। फिर अक्तूबर १९६४ से श्री लालबहादुर शास्त्री ने तीन सौ रुपये मासिक मान धन देकर देश की कृतघ्नता के इस कलंक को मिटाने का प्रयत्न किया।
पाठकवृन्द । जिस नेता सुभाष के दर्शन के लिए भारत का बच्चा-बच्चा आज भी तड़प रहा है और उसके आने की आश लगाए बैठा है, यदि वह आ जाये, तो ये नेता उसके साथ भी क्या सावरकर जैसा भी व्यवहार कर पायेंगे ? और यदि भगत सिंह जीवित रहता, तो क्या उसे भी सावरकर की तरह बर्फ में न लगा देते! आपको आश्चर्य होता होगा कि भारत के प्रधानमन्त्री ने भारत माँ के सपूतों के साथ अंग्रेजों जैसा व्यवहार क्यों किया ! इसी सन्देह का निवारण करने के लिए श्री अश्विनी कुमार ने 'पंजाब केसरी' के सम्पादकीय में अनेक बार लिखा। २३ सितम्बर २००२ में लिखा है कि तत्कालीन गृह विभाग के सबसे बड़े अधिकारी क्युडी ने ब्रिटिश क्राउन से १९४३ से १९४७तक जो पत्राचार किया, उनमें इस बात का विशद वर्णन है कि उन्हें देश (भारत) इसलिए छोड़ना पड़ेगा क्योंकि क्रान्तिकारियों के खून की उष्णता अब ठंडी नहीं होगी और भारत न छोड़ा गया तो बड़ा नुकसान होगा। उन पत्रों में सुभाष बाबू के बारे में बहुत कुछ तो था ही, साथ ही तथाकथित अहिंसकों की खिल्ली भी उड़ाई गई थी-" इन भिक्षुकवृत्ति के डरपोकों और कायरों के अहिंसक आन्दोलनों से अगर भारत छोड़ना होता हो शायद आने वाले २०० वर्षों तक हम न छोडें, परन्तु 'रिवोल्युशनरीज़' के कारण हमें भारत छोड़ना होगा, अतः इन क्रान्तिकारियों से हम अद्भुत बदला लेंगे।
१४ फरवरी २००५ में लिखा- "पं० नेहरू को साथ लेकर लार्ड व लेडी माउण्ट बैंटन के माध्यम से अंग्रेजों ने एक षड्यन्त्र रचा-हम भारत को दो वर्ष के अन्दर छोड़कर चले जाएंगे। हम स्वयं यहाँ नहीं रहना चाहते। लेकिन हमारी एक शर्त है, हम इस स्वतंत्रता संग्राम की जीत का सारा सेहरा बापू और उनकी अहिंसा के नाम करना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि सारी दुनिया में यह प्रचारित-प्रसारित हो कि अहिंसा, अवज्ञा के कारण हमने मानवीय संवेदना के वशीभूत होकर भारत छोड़ा है। यह अहिंसा महान है। हम चाहते हैं कि जिन क्रान्तिकारियों के कारण हमने यह निर्णय लिया है या क्रान्तिकारियों की जिन गतिविधियों के कारण हम भारत को छोड़कर जा रहे हैं, उनसे सबसे बड़ा बदला यही होगा कि उनकी क्रान्ति का नामो निशां विश्व और भारत के इतिहास के पन्नों से मिटा दिया जाए। हम उन्हें अपने इतिहास में युद्ध अपराधी और उग्रवादी ही लिखना चाहेंगे और भारत के साथ हम लिखित समझौता चाहेंगे कि १९९९ तक किसी भी क्रान्तिकारी के महिमा मंडन वाली किताब किसी स्तर में न पढ़ाई जाए।
इसके लिए तीन वर्ष तक लार्ड माउण्ट बैंटन भारत में रहे और पं० नेहरू ने आज्ञाकारी सेवक की भूमिका निभाते हुए ऐसे इतिहासकारों से इतिहास लिखवाया जो विदेशी विचारधारा का चश्मा लगाकर सारे देश के सारे स्वाधीनता इतिहास ही नहीं, उन महापुरुषों के इतिहास को भी सही रूप से न आने दें, जिनके चरित्र से देशभक्ति की लौ फिर प्रज्वलित हो। डॉ० आर०सी० मजूमदार ने आधुनिक भारत की इतिहासगाथा के पृष्ठ ३५-५७तक में शोध-पत्र के हवाले से इस रहस्य का उद्घाटन करते हुए कहा है-"जब भारत की स्वतन्त्रता का इतिहास लिखा जा रहा था, तो शोधकर्ताओं को निर्देश दिये गये कि केवल उन क्रान्तिकारियों को प्रकाश में लायें, जो हिंसा में लिप्त नहीं थे। सरकार गाँधीवादी विचारधारा की पोषक है। अतः पुस्तकें राजनीति की दस्तक बनी। इतिहास को तथ्यात्मक तथा गौरवशाली न बनाकर इसे तोड-मरोड़ दिया।
लेडी माउण्ट बेंटन के साथ शिमला में मौज-मस्ती करने वाले नेहरू ने राष्ट्रीय विचारधारा वाले बुद्धिजीवियों का दमन किया और विदेशी विचारधारा वाले इतिहासकार डॉ० ताराचन्द को राजदूत की पदवी दी। श्रीमती इन्दिरा गाँधी के समय नूरुल हसन शिक्षामंत्री बने और शिक्षा मंत्रालय से जुड़े सभी संस्थानों में उन्होंने कम्युनिस्टों को बैठा दिया। १९७२ तक सभी शिक्षण संस्थाएँ वामपंथियों के कब्जे में आ गई। नेहरू बड़े गर्व से कहा करते थे कि सांस्कृतिक स्तर पर मैं मुसलमान हूँ, शिक्षण-प्रशिक्षण के स्तर पर मैं अंग्रेज हूँ, सिर्फ जन्म से हिन्दू हूँ। एक बार तो उन्होंने भारत आये अमेरिकी राजदूत गैलब्रेथ से यहाँ तक कह दिया- "मैं भारत पर शासन करने वाला अन्तिम अंग्रेज हूँ।
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