अक्तूबर, 1971 के साप्ताहिक 'धर्मयुग' के किसी अंक में तत्कालीन संसद-सदस्य श्री प्रकाशवीर शास्त्री ने महर्षि दयानन्द पर लेख लिखते हुए लिखा कि हमारे राष्ट्रगीत वन्दे मातरम् की रचनाकाल सन् 1872 ई० है। बंकिम बाबू ने इस गीत को भारत मां की वन्दना करते हुए सन् 1872 में लिखा था।
प्रत्युत्तर में संपादक के नाम पत्न लिखते हुए श्री बालकवि बैरागी ने सुझाव दिया कि पूरे देश को इस गीत की जन्म शताब्दी मनाना चाहिए। इस सुझाव का प्रभाव हमारे मित्र और 'आपका स्वास्थ्य' के संपादक डाक्टर भानुशंकर मेहता पर तत्काल पड़ा। उन्होंने मुझसे कहा, 'ठलुआ क्लब की ओर से एक ऐसा आयोजन करने का विचार है जिसमें राष्ट्रपति तक आ सकते हैं।' इसके बाद दोनों लेखों का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि वन्दे मातरम् का इतिहास का पता लगाऊं। बंगला में जरूर होगा।
मैंने इस प्रस्ताव को गहराई से नहीं लिया। डाक्टर भानुशंकर मेहता चमत्कारों के पीछे परेशान रहते हैं और मैं उन समस्याओं से दूर रहता हूं जिसका सिर-पैर न हो। श्री प्रकाशवीर शास्त्री को पत्न लिखते हुए यह जरूर पूछा कि आपको कैसे मालूम कि वन्दे मातरम् गीत को बंकिम बाबू ने सन् 1872 में लिखा था? काफी दिनों के बाद भी उनसे कोई जवाब नहीं मिला। कई हिन्दी के विद्वानों से यही सवाल किया तो सभीने यही उत्तर दिया कि वह तो आनंदमठ में प्रकाशित है, देख लीजिए। एक सज्जन जोकि मेरा आशय ठीक से समझ सके थे, उन्होंने उत्तर दिया कि आनंदमठ के प्रथम संस्करण में देखिए, उसमें उसका उल्लेख अवश्य होगा। कहने का मतलब, किसीको भी इस बारे में सही जानकारी नहीं थी। बेकार माथापच्ची करने से क्या फायदा, सोचकर मैं शांत हो गया। डाक्टर मेहता ने स्वयं इस दिशा में कुछ नहीं किया। यह उनके वश की बात भी नहीं थी।
सन् 1972 को कौन कहे, सन् 1975 भी प्रारंभ हो गया, पर सरकार याजनता की ओर से कहीं वन्दे मातरम् का नारा तक नहीं लगा। यह देखकर मैंने सोचा कि शास्त्रीजी ने बैठे-ठाले एक शिगूफा छोड़ दिया था। ठीक इन्हीं दिनों कैंसर का शिकार हुआ। निरामय के बाद ज्ञात हुआ कि मैं बेकार हो गया हूं यानी नौकरी छूट गई है। बेकारी के समय में ही पुरानी पत्निकाएं आदि पढ़ने का मौका मिलता है। इन्हीं दिनों एक लेख पढ़ने में आया- 'एकटी मंतेर जन्म।' 'आनंद बाजार पत्रिका' दैनिक बंगला में प्रोफेसर भवतोष दत्त का लेख था। प्रकाशन-तिथि अक्तूबर, सन् 1969। इस लेख को पढ़ते ही मैं चौंक उठा। जिस बात की तलाश में तीन साल से परेशान था, वह मेरे घर में ही मौजूद थी। लेख में सूचनाएं तो महत्वपूर्ण थीं, पर संदर्भ ग्रंथों का उल्लेख नहीं था। लेख में जिन लेखकों की चर्चा थी, उनकी पुस्तकों की खोज में काशी के सभी पुस्तकालयों का चक्कर काटने के बाद भी नहीं मिली तो राष्ट्रीय पुस्तकालय में भाई कृष्णाचार्यजी को पत्र लिखा। वहां से भी जवाब आया कि इन लेखकों की पुस्तकें प्राप्य नहीं हैं। बात समझ में नहीं आ रही थी। संयोगवश 'बंग साहित्य समाज' पुस्तकालय में 'बंकिम प्रसंग' नामक पुस्तक प्राप्त हुई तो सारा रहस्य समझ में आ गया कि दत्त महाशय को अपने लेख का मसाला कहां से मिला है।
सन् 1914 के दिनों एक बार कलकत्ता से बंकिम बाबू की जन्मभूमि कांटालपाड़ा तक लोग पदयाला करते हुए उनके प्रति श्रद्धा प्रकट करने के उद्देश्य से गए थे। इन लोगों में अनेक बुद्धिजीवी थे। बंकिम बाबू के अनन्य मित्र श्री दीनबंधु मित्न के पुत्न श्री ललितकुमार मित्र भी गए हुए थे। वहां जाकर श्री मित्रन ने 'बंग दर्शन पत्निका' के प्रेस-व्यवस्थापक श्री रामचन्द्र बनर्जी से भेंट कर यह पूछा कि वन्दे मातरम् गीत कब लिखा गया था। उन्होंने जो कुछ कहा, उस बयान को श्री मिल ने श्री चित्तरंजन दास द्वारा संपादित 'नारायण' पत्रिका में प्रकाशित कराया। इस लेख के प्रकाशन के बाद बंकिम बाबू के छोटे भाई ने भी उसीसे संबंधित लेख छपवाया। वन्दे मातरम् और बंकिम बाबू से संबंधित कई लेखों का संकलन करके 'साहित्य' पत्रिका के संपादक तथा वन्दे मातरम् सम्प्रदाय के मंत्री श्री सुरेश समाजपति ने छपवाया। स्वतंत्र रूप से किसीने पुस्तक नहीं लिखा था। ऐसी हालत में उन लेखकों की पुस्तकें कहां मिलतीं?
इस पुस्तक को पढ़ने के बाद बंकिम बाबू से संबंधित समस्त पुस्तकों की सूची भेजने के लिए राष्ट्रीय पुस्तकालय को लिखा। तब तक मैं काशी में जितने पुस्तकालय थे, उन सभीके यहां तेजी से इस बारे में तलाश करता रहा। राष्ट्रीय पुस्तकालय से 85 पुस्तकों की सूची प्राप्त होते ही मैं कलकत्ता में भाई नथमल केडिया के यहां आकर ठहर गया और नियमित रूप से विभिन्न पुस्तकालयों में पुस्तकों का अध्ययन करने लगा। बंकिम-साहित्य अध्ययन करते समय यह ज्ञात हुआ कि वन्दे मातरम् गीत तथा आनंदमठ उपन्यास का संबंध बीरभूमि जिले के केन्दु विल्व गांव से भी है। केन्दु विल्व गांव को केन्दुली भी कहा जाता है। प्रति वर्ष यहां 14 जनवरी से लगातार 15 दिनों तक बाउल संतों का मेला लगता है। इस मेले को देखने के लिए मैं शांति निकेतन स्थित डा० शिवनाथजी के घर चला आया। डाक्टर साहब मेरे पुराने मित्न एवं शांति निकेतन विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक हैं। अगर मैं यह कहूं तो कोई अत्युक्ति न होगी कि यदि यहां न आता तो वन्दे मातरम् गीत की शोध न कर पाता। यहां आने पर पता चला कि विश्वविद्यालय का निजी पुस्तकालय विशाल है और यहां अनेक अप्राप्य पुस्तकें हैं। इसके अलावा एक दूसरी लाइब्रेरी रवीन्द्र सदन भी है। सबसे महत्वपूर्ण सूचना यह मिली कि सन् 1866 में महाकवि रवीन्द्रनाथ ने कांग्रेस के 12वें अधिवेशन में जो वन्दे मातरम् गीत गाया था, उसका टेप मौजूद है। मैं इसे पाने के लिए जब व्याकुल हो उठा तो उन्होंने कहा कि एक आवेदनपत्न आप दे दीजिए, सिनेट की बैठक होने पर प्रस्ताव पास करवा लूंगा। यह जानकर मुझे बेहद प्रसन्नता हुई।
14 जनवरी को केन्दुली जाकर जो दृश्य देखा, उससे यह विश्वास हो गया कि आनंदमठ में वर्णित समस्त प्रकृति इसी भूमि की है। ये बाउल ही उनके संन्यासी हैं। विश्वविद्यालय के पुस्तकालय से अनुमति प्राप्त कर यहां अनेक अप्राप्य पुस्तकों को देखा। सच तो यह है कि राष्ट्रीय पुस्तकालय की अपेक्षा यहां के दोनों पुस्तकालयों में पढ़ने की अधिक सुविधा प्राप्त हुई।
शांति निकेतन से कलकत्ता वापस आकर मैं बंकिम बाबू की जन्मभूमि कांटालपाड़ा गया। वहां बंकिम म्युजियम के निदेशक के रूप में श्रीगोपालचन्द्र राय को देखकर आश्चर्य हुआ। अब तक मैं उन्हें शरत् बाबू का जीवनीकार समझता रहा। यह नहीं मालूम था कि वे बंकिम बाबू के बारे में काफी जानकारी रखते हैं। आपसे काफी जानकारी प्राप्त हुई। आपसे यह भी मालूम हुआ कि बंगला में वन्दे मातरम् संबंधी कोई पुस्तक प्राप्य नहीं है और न वन्दे मातरम् गीत की मूल पांडुलिपि ही प्राप्त है।
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