पुस्तक परिचय
वैसे देखा जाये, तो कर क्या डाला था इमली के इस वृक्ष ने? जहाँ जन्मा, वहीं खड़ा रहा, बसा और क्या! मानवक्रीड़ा का मौन साक्षी। बस ! और क्या? इस क्रीड़ा में भाग लिया था वृक्ष ने? अछूता ही तो रहा था वृक्ष इस क्रीड़ा से? की नहीं? आते-जाते की हँसी, आते-जाते का रोना, रोने ही का हँसी का रुप घरना, स्वार्थ, त्याग, त्याग में छिपा स्वार्थ, ईष्या, प्रेम ही के कारण जन्म लेने वाला द्वेष... यह सब कुछ देखता रहा वृक्ष, देखते खड़ा रहा वृक्ष। और करता भी क्या वृक्ष? मानवजाति के प्रति कौन-सी बुराई की वृक्ष ने? माँगा था किसी से, कुछ भी, हाथ फैलाकर? ही ही की थी किसी को देखकर ? खोदा था गड्डा किसी के लिए, किसी से मिलकर? वृक्ष ने आप ही जन्म लिया था। आप ही बढ़ा था वृक्ष। पत्ते निकले। फूल खिले, फलियाँ लगीं। फूल बदलकर फली बनी। पत्तियाँ गायब हुई। पत्तियाँ पक कर गिरीं, घरती को छिपातीं। घरती ही में घुल-मिलकर, जननी को शक्तिप्रदान कर, वृक्ष ही में समा गयीं पत्तियाँ। आकाश को टटोलती टहनियाँ। ज़मीन में राह भुला देने वाली जड़ें। बस। आत्मसम्मान सहित इसी प्रकार जी रहा था वृक्ष। वही, इमली का। फिर वही बात! देश, दौलत, संतरी, अधिकार, ख्याती... पासे बना दिये गये हैं। इमली के वृक्ष की क्या औकात? बना दिया गया पासा। इस वृक्ष का जीवन बीता कैसे ? कैसे हुई इसकी मृत्यु? कहानी यही है। - पुस्तक से
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