लोक प्रशासन आज के कल्याण-राज्य एवं समाजवादी सरकारों की सफलता का परीक्षा-स्थल है। भारतीय जनतन्त्र का नया परिवेश उसके सम्मुख नई चुनौतियाँ प्रस्तुत करता है। भारत जैसे विकासशील देश में जहाँ जन-साधारण प्रशासन से बड़ी-बड़ी अपेक्षा करता है, यह स्वाभाविक है कि लोक प्रशासन के अध्ययन-अध्यापन को प्राथमिकता दी जाए।
सौभाग्य से हमारे विश्वविद्यालयों में एक अध्ययन-शास्त्र के रूप में, लोक प्रशासन की शोध द्रुत गति से आगे बढ़ रही है। प्रशासनिक अनुभव एवं गम्भीर चिन्तन के क्षेत्र में भी गत दशकों में जो कुछ हुआ है वह भविष्य के लिए आशान्वित बनाता है।
'भारतीय प्रशासन : सिद्धान्त एवं व्यवहार' का प्रकाशन इस सन्दर्भ में स्वागतव्य है। विव्दान लेखक ने बड़े परिश्रम से नवीनतम उपलब्ध सामग्री को संजोकर बड़ी सरलता एवं रोचकता से प्रस्तुत किया है। भाषा एवं शैली के प्रयोग विषय को बोधगम्य बनाते हैं। हिन्दी माध्यम के वरिष्ठ विद्यार्थी एवं प्रशासक इसके अनुशीलन से प्रशासन जैसे जटिल एवं गत्यात्मक विषय के व्यावहारिक ज्ञान के सिद्धान्तों को सहज रूप से समझ सकेंगे।
प्रकाशकों व्दारा राष्ट्रभाषा हिन्दी के क्षेत्र को समृद्ध बनाने वाली प्रस्तुत पुस्तक मेरी अपनी सम्मति में एक महत्त्वपूर्ण रचना है। लेखक का परिश्रम अन्य विद्वानों को इस क्षेत्र की ओर उन्मुख करेगा, ऐसी मेरी कामना है।
भारतीय प्रशासन भारतीय राजनीतिक व्यवस्था की एक उपव्यवस्था है। जब तक वेश, समाज और राज्य की संरचनाओं में मूलभूत परिवर्तन नहीं होते तब तक प्रशासनिक व्यवस्था न स्वयं बदल सकती है और न उपव्यवस्थाओं को बदलने दे सकती है जो प्रशासन के चारों ओर घूमती रहती हैं। आजादी के 50 वर्ष बाद भी भारतीय समाज के सामने लगभग वे ही समस्यायें हैं जो सन् 1950 में चुनौती मानी जाती थीं। गरीबी, बेरोजगारी, जनसंख्या विस्फोट, भ्रष्टाचार, पिछड़ापन, जातिवाद और साम्प्रदायिकता इस सूची में पहले की भांति यथावत् हैं। दस पंचवर्षीय योजनाएँ पूरी कर लेने के बाद भी संसार के अधिकतम गरीब और निरक्षर इसी भूमि पर निवास करते हैं। संसार की महान् और प्राचीन सभ्यता के उत्तराधिकारी भारतीय समाज में नारी का जो शोषण और दलित पर अत्याचारों की जो स्थिति है वह कम्प्यूटर युग में भी शर्म का विषय है। हमारे गांव सड़ रहे हैं और पंचायती राज के डंके बजाने वाले हम एक कलैक्टर और एस.पी. के सामने ऐसे खड़े हैं जैसे ये देशी मैकाले और क्लाइव यदि हमारा प्रशासन न चलायें तो हम जाति-युद्धों और अपराधों की ज्वालाओं में जल कर इस धरती से मिट जायेंगे।
भारतीय प्रशासन पढने वाले विद्यार्थियों को भारतीय संविधान, योजना आयोग, लोक उद्यम, नौकरशाही, जिला प्रशासन और पंचायती राज का ज्ञान इसलिए दिया जाता है कि वे उन संरचनाओं और प्रक्रियाओं को समझें जिनके माध्यम से स्वतन्त्र भारत को एक नई व्यवस्था बनानी है लेकिन परीक्षा और प्रतियोगी-चयन की जड़-प्रणाली इन युवाओं से सिर्फ यह पूछती है कि प्रशासन की संस्थायें क्या-क्या कार्य करती हैं और उनकी ऐतिहासिक उपयोगिता आज भी क्यों महत्त्वपूर्ण है। परिवर्तन को क्रान्ति समझने वाले हमारे शासक और शासित इतिहास के मोह में इतने चकाचौंध हैं कि विरासतों को बनाये रखने में उन्हें गौरव की अनुभूति होती है। निहित स्वार्थों को बचाने के लिए प्रशासकों की एक बड़ी फौज हर शोषण यन्त्र को कार्यकुशलता और योग्यता बतला कर इस व्यवस्था पर कहीं कोई प्रहार नहीं करने देती। देश और उसकी राज्य सरकारें आर्थिक आपातकाल के दौर से गुजरें तो भी हर नौकरशाह की कार का काफिला उसे योग्य बनाये रखने के लिए जरूरी बतलाया जा रहा है। राजनेता स्वयं को जन-प्रतिनिधि कहते हैं पर चुनाव जीतने के बाद सिविल लाइन्स की भदलोक संस्कृति में कलेक्टर की तरह जीना उनका एक राजनीतिक प्रतिमान बन चुका है। जनता से कहा जाता है कि प्रशासन का राजनीतिकरण हो रहा है पर भारतीय प्रशासन के विद्यार्थी बारीकी से देखें कि भारतीय राजनीति पूरी तरह प्रशासन की जकड में हैं और पंचायती राज को संविधान में जगह देकर भी यह पूछ रही है कि क्या यह सुधार जिला कलैक्टर के पद को खत्म कर देगा ?
प्रस्तुत पुस्तक में भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था के पांच मुख्य क्षेत्रों पर विशद सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक चर्चा की गई है। सामग्री शैक्षिक है इसलिए विवेचना के उद्म प्रश्न वहाँ पूछे ही नहीं गये हैं। उदाहरण के लिए भारत की संवैधानिक व्यवस्था को हम लोकतन्त्रात्मक, संघात्मक, धर्म-निरपेक्ष एवं कल्याण राज्य की पोषक बतलाते हैं और वह ऐसी है भी लेकिन गत आधी शताब्दी में यह इन उद्देश्यों की ओर तीव्र गति से आगे क्यों नहीं बढ़ सकी ? कारण साफ है हमारे चुनाव हमारे सच्चे प्रतिनिधि नहीं चुन सके । हमारी व्यवस्था राजनीतिक दलों को विचारधारा नहीं दे सकी। सत्ता में रहने के लिए जो वोट बैंक बने वे साम्प्रदायिक और जातिवादी थे, अभिजात के देशी अंग्रेज देश की एकता बनाये रखने के नाम पर यथास्थिति को स्थिरता बतलाकर गाँवों को लूटते रहे, दलितों को चूसते रहे और देशी साम्राज्यवाद को योग्यता का प्रशासन बतलाते रहे। इस जीवन्त दस्तावेज में प्रशासन को सुधारने का कोई अभियान आज भी नहीं है। राजनीति प्रशासन के कारण और प्रशासन राजनीति के कारण पंगु है। अतः दोनों का स्पष्ट समझौता यह है कि स्थिति को बदलने मत दो और जिससे जो छीना जा सके छीनते रहो। संविधान के संशोधन की संख्या आज सौ का आंकड़ा छू रही है पर जिस गंगोतरी से सारा भ्रष्टाचार उद्गमित हो रहा है उस चुनाव व्यवस्था में सुधार होना चाहिए और वह भी किस प्रकार का, यह इक्कीसवीं सदी में सोचा जायेगा। प्रशासन जहाँ जो चाहता है संसदीय जनतन्त्र के नाम पर कर लेता है और भारत का संसदीय लोकतन्त्र वह माना जाता है जो एक यूरोप के एकात्मक उपनिवेशवादी देश इंग्लैण्ड की राजनीतिक जीवन शैली रही है।
यह व्यवस्था किस प्रकार का भारतीयकरण चाहती है जब तक कोई नया अम्बेडकर यह नई व्यवस्था नहीं रचता, भारतीय प्रशासन मन्त्री-प्रशासक सम्बन्धों पर एक अर्थहीन बहस करता रहेगा। न्यायपालिका की स्वायत्तता और नागरिक मूल अधिकार संविधान में हैं पर प्रशासन की गोपनीयता और विवेकाधिकार जब इन पर अतिक्रमण करे तो कौन सी सक्रियता या प्रतिरोध इन्हें बचा सकता है। यह प्रशासनिक न्यायाधिकरणों से आगे का विषय है। भारतीय विद्यार्थी परीक्षा के लिए राज्यपाल जैसे अनावश्यक पद पर सारहीन बहस करता रहता है। ये राज्यपाल यदि मुख्य न्यायाधीश के आवास में चले जायें तो राजकोष को करोड़ों की बचत होगी और यदि बिना नया मुख्यमन्त्री चुने निवर्तमान मुख्यमन्त्री के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव रखने वालों की कोई परेड़ न करवाई जाये तो राज्यपाल की वे सारी भूमिकायें गौण हो जायेंगी जिनके लिए विद्यार्थी सरकारिया आयोगों की शिफारिशें रटते रहते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि संविधान पुनर्लेखन या पुनार्नेर्माण हमारी राजनीतिक आवश्यकता है जिसे हमारी संसद को संविधान सभा बन कर पूरा करना चाहिए। दूसरा क्षेत्र आर्थिक प्रशासन है जिसे आयोजना और विकास योजनाओं के प्रशासन के रूप में प्रशासन के विद्यार्थी पढते हैं। यह क्षेत्र कुछ आंकड़ों से यह जानकारी देता है कि हमारा योजना आयोग क्या कुछ कर रहा है और किन किन योजनाओं से विकास प्रशासन किस वर्ग को क्या सुविधा प्रदान कर लोगों को गरीबी की रेखा से बाहर निकाल रहा है। राजनीति कुछ भी कहती रहे पर लागत लाभ का गणित यह बतला रहा है कि भारतीय प्रशासक इन योजनाओं के आंकड़ों में आकंठ डूब कर अपने भ्रष्टाचारी हित पूरे कर रहा है। योजना एक तकनीकी क्षेत्र है जिसे विशेषज्ञ तथा राजनीतिज्ञ मिल कर इसका दिशा निर्देश कर सकते हैं। पर करोड़ों रुपये से ग्राम समृद्धि का दम भरने वाला प्रशासन केवल इन योजनाओं के लक्ष्यों को विद्यार्थियों को रटा कर उनका प्रशासनिक ज्ञान बढा रहा है, यह अपने आप में एक उत्तरहीन प्रश्न है।
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