डॉ० हीरालाल पाण्डेय की प्रस्तुत कृति 'भारतीय विरासत और इतिहास' की भूमिका में कुछ शब्द लिखते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता हो रही है। इस ग्रंथ का विवेच्य युग वैदिक वाङ्मय तथा महाकाव्य काल की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का निरूपण और उसकी गौरवगाथा का इतिहास रखा गया है, जो आर्य संस्कृति के प्राणदाता वेदों के रहस्यमूलक ज्ञान के भण्डार का अथाह सागर और भारतीय संस्कृति के उपासकों के जीवन दर्शन के मुख्य स्रोत भी हैं। वर्तमान परिदृश्य में जब भारतीय संस्कृति का क्षरण जारी है, प्रस्तुत ग्रन्थ का विवरण और विवेचन हमारे संस्कार के संयोजन में संजीवनी का कार्य कर सकता है, बशर्ते हम भारतीय विश्व के आद्य-ग्रन्थ के अनुशीलन के प्रति अभिरूचि उत्पन्न कर सकें। जहाँ तक वेद के साहित्यिक विधान का प्रश्न है उसमें धार्मिक आवेष्टिता तो है ही, भौतिकता का इतना विशाल चित्रण है जो आदिमानव काल से अभिहीत रहकर आज भी मानवीयजीवन दर्शन का मूल आधार है और लौकिक साहित्य का जनक माना जाता हैं पाश्चात्य इतिहासकार मैकडानल का वेद संदर्भित यह कथन अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि 'प्रारम्भ से ही उन लोगों के साहसिक कारनामों का जिन्होंने हमारे विषय के तथा उसमें रहने वाले मनुष्यों के जीवन के महत्व का अन्वेषण करने की चेष्टा की'। वस्तुतः हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति एक अविच्छिन एवं गतिमान परम्परा के आध्यात्मिक चिंतन की पराकाष्ठा के साथ-साथ देश की प्राकृतिक एकरसता से समन्वय बनाकर वैश्विक जीवन-दर्शन की अक्षुण्य सम्पदा का प्रतिरूपण करती है, जो तिथिगत ऐतिहासिक वर्णनों से ज्यादा प्रभावकारी परम्परा के रूप में हमारे संसकारों को अनुप्रमाणित करती है और उसमें हमारा आध्यात्मिक इतिहास निरूपित है, ऐसा ही प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक का प्रतिपाद्य परिलक्षित हो रहा है जो निश्चित रूप से एक अति विचार मन्थन का परिणाम है।
वैदिक काल, सूत्रकाल और महाकाव्य काल भारतीय आर्यों की सभ्यता और संस्कृति के प्राचीनतम ऐतिहासिक विकास के निर्विवाद स्रोत है। रामायण (वाल्मीकि) आदिकाव्य है, जो एक व्यक्ति की रचना है, फिर भी भारत के भौगोलिक ज्ञान की पृष्ठभूमि के निर्माण के साथ-साथ राजनतिक विधानों एवं राजकीय व्यवस्थाओं का आदर्शमय निरुपण एवं मर्यादा पुरुषोत्तम राम की शासकीय जिज्ञासा तथा वाल्मीकि रामाययण के अयोध्या काण्ड का उद्धरण नैतक न्याय अवस्था हेतु अनुकरणीय संदेश के रुप में लेखक द्वारा प्रस्ताविक किया जाना प्रतीत होता है।
चित्रकूट में श्रीराम भाई भरत से पूछते है-
"कच्चिदार्योऽपि शुद्धात्मा क्षारितश्चापि कर्मणा।
अदृष्टः शास्त्रकुशलैर्न लोभाद् बध्यते शुचिः ।।56 11
भावार्थ- हे भरत ! कभी ऐसा तो नही होता कि कोई मनुष्य किसी धर्मात्मा या श्रेष्ट और निर्दोष मनुष्य पर आरोप लगा दे और शास्त्रज्ञान में कुशल विद्वानों द्वारा विचार कराये बिना ही लोभवश उसे आर्थिक दण्ड दे दिया जाता हो।
वस्तुतः साहित्य का संदेश सार्वभौमिक होता है, जो भारतीय सांस्कृतिक परिवेश में अबाध रुप से गतिमान रहा है और चरित्र ही मानव जीवन का दर्पण रहा है। वाल्मीकि के मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम स्नेह, सदाचार, निष्ठा, आज्ञाकारिता एवं त्याग के प्रतिमूर्ति हैं और इन्हीं शाश्वत मूल्यों का आचरण कर आर्यों ने अपना क्रमिक विकास किया, जिसमें लौकिकता एवं पारलौककिकता दोनों की दृष्टि के आदर्श संयुक्त है। वस्तुतः यह किसी 'राम' नामक नायक का यशगान ही नहीं अपितु भारतीय मनीषियों ने अपने आख्यानों एवं उपाख्यानों के माध्यम से जिन व्यापक संस्कारों एवं आदर्शों को निरुपित किया है, वह किसी भी देश, काल में सर्वत्र ग्राह्य एवं मंगलकारी प्रवृत्ति के हैं, लेखक का यह दृष्टिकोण वर्तमान में अत्यधिक प्रासंगिक है।
Hindu (हिंदू धर्म) (13447)
Tantra (तन्त्र) (1004)
Vedas (वेद) (715)
Ayurveda (आयुर्वेद) (2074)
Chaukhamba | चौखंबा (3189)
Jyotish (ज्योतिष) (1544)
Yoga (योग) (1154)
Ramayana (रामायण) (1336)
Gita Press (गीता प्रेस) (726)
Sahitya (साहित्य) (24553)
History (इतिहास) (8927)
Philosophy (दर्शन) (3592)
Santvani (सन्त वाणी) (2621)
Vedanta (वेदांत) (117)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist