समकालीन कहानीकारों ने साहित्य के माध्यम से जनसमुदाय के हृदय परिवर्तन पर महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। बदले हुए सम्बन्धों, अनुभवों, समझ और मूल्य - दृष्टियों को पहचानना और एक जीवन चेतना का समग्र स्वर उभारने के लिए उन्हें परस्पर संयोजित करना, इस बदलाव के काल में नये और पुराने की अद्भुत टकराहट दिखाई पड़ती है। इसलिए लोक-जीवन सरल न रहकर बहुत जटिल बन गया है।
सुधार से परिवर्तन, संघर्ष से परिवर्तन, क्रान्ति से परिवर्तन, हम किस उपाय से परिवर्तन लाने के इच्छुक हैं, इस पर बहुत कुछ निर्भर करता है। सुधारवादी तरीकों से परिवर्तन लाने का पूरा एक युग हम देख चुके हैं। सुधार का दौर ज्यादातर भ्रान्ति का दौर रहा है। इस दौर में अन्याय कम नहीं हुआ, उसे अधिक प्रश्रय मिला है, संबंधों में पाखंड और दोगलापन बढ़ा है और यथास्थिति और पुख्ता हुई है। इस भ्रान्ति से निजात पाने के लिए और सामाजिक परिवर्तन की दिशाओं में आगे बढ़ने के लिए संघर्ष के एक लम्बे दौर के लिए तैयारी और उसमें भागीदारी लाजमी है। हमारे समाज का ढाँचा जिस तरह का है, उसे देखते हुए सुधारवादी दृष्टि से किये गये सुधार ढाँचे में ही खपकर रह जाते हैं। ऐसी स्थिति में संघर्षों के लम्बे दौर को अपनाकर ही कोई लेखक-बौद्धिक बुनियादी क्रान्तिकारी रद्दोबदल की दिशा पा सकता है। हाँ, यह उसे देखना होगा कि जिस व्यवस्था या संस्था को वह अपना निशाना बना रहा है, जिसके प्रति अपना आक्रोश और विरोध प्रकट कर रहा है, उस व्यवस्था और संस्था को वह कितना जानता है। उसे इसकी बराबर टोह लेते रहना चाहिए और यह परखते रहना चाहिए कि संवेदना, विचार और मानसिकता के स्तरों पर वह व्यवस्था से जूझने का कितना प्रमाण संजो पा रहा है? इस जूझने के दौरान वह विसंगतियों को झेलता हुआ निर्णय की हालत में पहुँच सकता है, पर निर्णय पुनः उसे विसंगतियों के भयंकर जाल में नहीं फँसा देगा, यह निद्वंद्व होकर नहीं कहा जा सकता।
लेखक का अनुभव, दृश्य से उभरता है अर्थात् जो कुछ वह देखता है और जिस परिवेश में देखता है तथा जिस ऐतिहासिक क्रम के द्वन्द्वात्मक परिणाम में उसकी क्रिया-प्रतिक्रियाएँ होती हैं, उन्हीं से उसका एक संसार बनता है। इसका यह सीधा अर्थ हुआ कि सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन के साथ साथ लेखक की आन्तरिक सर्जनात्मक व्यवस्था बदलती है, लेकिन उसके रूप नितान्त अनुकर्त्ता नहीं कहे जा सकते। वह प्रभावित होते हुए भी नया बनता है, और फिर जिससे वह प्रभावित हुआ है, उसे प्रभावित करने की क्षमता भी अर्जित करता है। इसलिए जहाँ एक ओर समाज की मानसिकता और सौन्दर्य - दृष्टि उसके लिए सहज स्वीकार होती है, वहीं एक चुनौती भी हो सकती है, और यह विचार बहुत हद तक सही है- सृजनात्मक अनुभव, सामाजिक अनुभव का उत्पादन होता है। समाज की मानसिकता उन स्थितियों से बनती है जो ऐतिहासिक द्वन्द्वात्मकता के लिए उभरती है, लेकिन सामान्य समाजशास्त्रीय और गणितीय सम्बन्धों तथा द्वन्द्वों की तरह लेखक की सौन्दर्यदृष्टि की व्याख्या नहीं की जा सकती । लेखक हर बार हर युग में सम्पूर्ण ऐतिहासिक क्षणों के बीच एक ऐसे मानवीय क्षण की रचना करता है, जो इतना समृद्ध होता है कि वह कालान्तरित होकर ऐतिहासिक संदर्भों के पार और मनुष्य की सामान्यताओं से परे किसी सत्य की अभिव्यक्ति करता है। उपेन्द्रनाथ अश्क मानते हैं कि सातवें दशक के कथाकारों की रवनाओं में कुछ ऐसा आ गया है, जो परम्परा से एकदम कटा हुआ दिखायी देता है। यही पुराने और सातवें दशक के कथाकारों की बीच की विभाजन रेखाएँ हैं।
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