ब्रजेश कुमार सिंह मूलतः बिहार के कैमूर से हैं, परवरिश मुजफ्फरपुर में हुई और फिलहाल दिल्ली-NCR में निवास करते हैं। पत्रकारिता की पढ़ाई भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय से की। मीडिया और निजी क्षेत्र में अनुभव रखने वाले ब्रजेश अरहान नाम से लेखन करते हैं। मुराक़ामी और काफ्का से प्रेरित हैं। ""इतवार का एक दिन"" अरहान का पहला कहानी संग्रह है।
कभी-कभी मुझे लगता है कि मुझे लिखना छोड़ देना चाहिए और खुद को एक हारा हुआ इंसान मानकर मुझे बस अपने सर्वाइवल के लिए लड़ना चाहिए। मुझे इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि मैं कितना कमा रहा हूँ। पहले मैं ऐसा नहीं सोचता था और मेरे ख़याल से शायद कभी किसी को ऐसे सोचना भी नहीं चाहिए। पर आजकल मुझे लग रहा है कि मैं शायद जीवन में न जाने क्या ही कर रहा हूँ। कुछ भी सही नहीं है। सब कुछ तितर-बितर सा है। ऐसा लग रहा है जैसे सब कुछ खत्म सा हो गया है।
मैंने इन दिनों लिखना छोड़ दिया है। मुझे लगने लगा है कि मेरे अंदर लेखक जैसी कोई बात नहीं है। बस कुछ एक जैसे अंत और प्रारूप वाली कहानियाँ लिख देने से कोई लेखक नहीं हो जाता है। जब भी मुझे लगता है कि मैं अब एक लेखक नहीं रहा तब मैं हरुकी मुराकामी का कोई भी नया उपन्यास उठाता हूँ और उसे पढ़ना शुरू कर देता हूँ। मुराकामी के उपन्यास को पढ़कर लगने लगता है कि जैसे मेरे अंदर भी एक लेखक है और मैं भी कुछ बेहतरीन लिख सकता हूँ। मुराकामी को पढ़ते ही मेरे अंदर कहानियों के कई नए प्लॉट हिलोरे मारने लगते हैं। कई किरदार मेरी आँखों के सामने ठीक वैसे ही रक्स करने लगते हैं जैसे सड़ चुकी लाशों में धीरे-धीरे कीड़े बिलबिलाने लगते हैं।
मेरे दिमाग़ में कई सारी कहानियाँ है जो बस इसलिए नहीं आ पाती क्यूंकि मैं उन कहानियों के बारे में सही ढंग से सोचता नहीं हूँ या फिर सोचना नहीं चाहता। एक लड़की जिसकी लाश कुछ दिनों पहले उसकी छत पर पड़ी मिली थी वो अब भी इस इंतज़ार में है कि मेरे द्वारा लिखा जाने वाला कोई किरदार उसके असली क़ातिल का पता लगाएगा और दुनिया के साथ-साथ उसे भी बताएगा कि उससे जीने का हक़ छीनने वाले शख़्स का चहरा कैसा दिखता है। मेरे उपन्यास की लड़की अभी भी मेरे उपन्यास के उन पन्नों का इंतज़ार करती है जहाँ उसे इस बात का पता चल जाए कि आख़िर उसे मारा किसने।
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