प्रस्तुत शोध की आवश्यकता एवं औचित्य जैनेन्द्र कुमार हिन्दी साहित्य के प्रतिभावान साहित्यकार हैं। साहित्य जगत में प्रेमचंद के अनन्तर हिन्दी साहित्य को नई दिशाएँ देने का श्रेय जैनेन्द्र, अज्ञेय, इलाचंद्र जोशी और यशपाल को है। जैनेन्द्र जी की हिन्दी साहित्य में अमिट छाप रही है। इस शताब्दी वर्ष में जैनेन्द्र कुमार के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता है। जैनेन्द्र के साहित्य पर आज तक काफी लेखन हुआ है। जीवन दर्शन, मनोवैज्ञानिकता, शैली, तात्त्विक विवेचन, चिंतन और सृजन आदि। जैनेन्द्र प्रमुखतः मनोवैज्ञानिक लेखक के रूप में ही हिन्दी साहित्य में मशहूर रहे हैं।
गरीबी, समाज की असमानता, काँवे दाँवे, दाँव-पेंच का मुझे पहले से ही पता था क्योंकि समाज में रहकर मैं इन सबका अनुभव कर रहा था, पढ़ाई काल से ही जैनेन्द्र का साहित्य अधिक पसंद था। उनका सामाजिक चित्रण ऐसा लगता था जैसे हमारे ही इर्द-गिर्द की समस्याएँ हैं और गाँवों में अक्सर ऐसी घटनाएँ घटती ही रहती हैं, जो देखी भी हैं और सुनी भी हैं अतः मुझे इस विषय पर काम करना उपयुक्त लगा। दूसरी बात यह कि द०गु०युनि० में इस विषय पर काम भी नहीं हुआ था। ऐसा मुझे डॉ० अम्बाशंकर नागर की शोधसूची से पता चला और मैंने तुरन्त इस विषय का चयन कर लिया। (हिन्दी भा० और सा० विकास में गुजरात का योगदान)
जैनेन्द्र केवल मनोवैज्ञानिक लेखक ही नहीं, वे और भी कुछ विचार जरूर रखते है, क्योंकि आखिर व्यक्ति से ही समाज बना है, उनकी रचनाओं में विचार, प्रेम, वर्गभेद, जन और विशिष्ट स्त्री-पुरुष के समाजगत संबंध आदि कुछ सामाजिक समस्याएँ चित्रित दिखाई दीं। अगर लेखक की ओर बनी लीक से हटकर देखेंगे तो कुछ नवीनतम सामने उपस्थित होगा, उसे समझेंगे और इस तरह मैंने उस दिशा में प्रयत्न किया।
प्रेमचंद जीवन संघर्षों के कथाकार माने जाते हैं। लोगों के दुख दर्द ही आपके साहित्य के प्राण हैं। प्रेमचंद के साहित्य में किसान समूह के रूप में आते हैं, व्यक्ति पात्र के रूप में नहीं। मनुष्य को समझना जटिल है और इस काम में जो लेखक सफल हुआ वही महान कहलाने का अधिकारी हुआ। प्रेमचंद की सफलता उनकी केन्द्रीय सोच उनके उपन्यासों में स्पष्ट प्रतिबिंबित होती है। प्रेमचंद सामान्यतः जनता के प्रति चिंता और सामाजिक न्याय के प्रति सजगता का दृष्टिकोण लेकर चले थे।
नारी द्वंद्वों को उनकी भाषा देने के साथ महिलाओं को जद्दोजहद के साथ जैनेन्द्र जी ने बोलना सिखाया है। उनकी ख्याति भारतीय चिंतकों में रही है। भारत को आधारभूत संरचना के स्वर पर समझा है। गाँधीमार्ग इस समझ का प्रामाणिक उद्गम है। अनेक जटिल समस्याओं को दूर करने में स्वयं तार्किक प्रविधि का प्रयोग अपनी रचना धर्मिता के चलते किया है। क्रांतिकारी संस्कृति में विशेष आशय नहीं मिल पाता, मानव सभ्यता की वर्तमान स्थिति में सबसे सूचक चरित्र और घटित कोई है तो वह गाँधी का है।
जैनेन्द्र के उपन्यासों में विवाह, काम, प्रेम, परिवार, नैतिकता आदि विषय प्रमुख रूप से विवेचित हुए हैं। प्रेमचंद का कहना था- साहित्य सामाजिक आदर्शों का सृष्टा है, जब आदर्श भ्रष्ट हो गया तो समाज के पतन में बहुत दिन नहीं लगते।
जैनेन्द्र ने भ्रष्ट होते हुए समाज को नजदीक से देखा था, इसलिए उनका मानना था, बिना उग्र हुए सृजनात्मक और रचनाशील संभावनाओं को जुटाया जाए। जैनेन्द्र ने पति-पत्नी प्रेमिका के संबंध तथा उनके द्वन्द्वों को जितना उभारा उतना किसी कथाकार ने नहीं किया है। स्वतंत्रता के बाद देश में तेजी के साथ मध्यवर्ती व्यक्तिवादिता का विकास हुआ। उपन्यासकार सामूहिक जीवन की अपेक्षा व्यक्ति के जीवन का अवगाहन करने लगे। जैनेन्द्र ने भी इस दिशा में अधिक लिखा है। समाज के साकार पक्ष को अधिक दिया जो समाज निर्माण में लोगों को जरूरत थी।
प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में हृदय परिवर्तनवादी, स्वराज्य आंदोलन, संयुक्त परिवार की रक्षा, जमींदारों के शोषण, पश्चिमी सभ्यता, संस्कृति के प्रभाव से चकाचौंध होता नगरों का मध्यमवर्ग, अछूतों की सोचनीय स्थिति, हिन्दू-मुस्लिम सांप्रदायिक समस्या, हिन्दू समाज की अनेक दूषित वैवाहिक प्रथाएँ आदि अनेक समस्याओं का चित्रण किया है। प्रेमचंद आदर्शोन्मुख यथार्थवाद को लेकर चले हैं।
प्रेमचंद ने उपन्यास साहित्य में नया मोड़ दिया, किसान, मजदूर, कारीगर, गरीब मध्यमवर्ग के समाज को अपनी कथा के केन्द्र में रख दिया। सच्चे जीवन की यथार्थ घटनाओं को चित्रण में स्थान दिया। मध्यमवर्गीय खोखलापन, पाखंड, रीति-रिवाजों, मान्यताओं को चित्रित करके सामाजिक चेतना जगाने का यशस्वी कार्य किया। आदर्शवादी जिसका प्रतिनिधि, (प्रतिज्ञा-अमृतराय), (कर्मभूमि-शांतिकुमार), (गोदान-मि० मेहता) उपन्यास में शहरी मध्यमवर्ग में ग्रामीण शहराती दोनों प्रकार की मध्यमवर्गीय जीवन प्रणालियों को यथार्थरूप में चित्रित करना प्रेमचन्द का मुख्य कर्तव्य रहा है। डॉ० कुँवरपाल सिंह लिखते हैं- "प्रेमचंद ने राष्ट्रीय आंदोलन, जनजीवन के संघर्ष, अन्याय, शोषण का यथार्थ चित्रण किया। वर्ग चरित्र की गहरी समझ है- जमींदार, राजा, छोटे-बड़े किसान, पूँजीपति, उद्योगपति, व्यापारी, जर्मीदारों, कारकुन, पटवारी, पुलिस, कचहरी का अमलदार, छोटे-बड़े अफसर आदि यथार्थ रूप में अपने वर्ग का प्रतिनिधित्त्व करते हैं। शोषित, पीड़ित, जनता के प्रति सहानुभूति शोषण विहीन और मानव समता पर आधारित समाज संरचना का स्वप्न रहा है।
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