आत्माभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम के रूप में विकसित चित्रकला और संगीत कला का प्राचीन काल से ही गहरा तालमेल रहा है। गुफाओं के अंदर जो पाषाण काल के शैलचित्र मिले हैं, वे न केवल चित्रकला के आदि प्रमाण हैं, बल्कि उनमें उकेरे गए समकालीन वाद्य यंत्र हमें संगीत कला के विकास की कड़ियों से जोड़ते हैं। मानव की यह प्राकृतिक प्रवृत्ति है कि वह अपने अंतर के भाव प्रकट किए बिना रह नहीं सकता और भावों का आधार होता है मनुष्य का परिवेश। विद्वानों की मान्यता है कि आदिम काल में जब भाषा और लिपि-चिह्नों का आविर्भाव नहीं हुआ था, तब ध्वनि संकेतों का विशेष महत्त्व था। इसी क्रम में अलग-अलग ध्वनि संकेत प्रदान करने वाले वाद्य यंत्रों का आविर्भाव हुआ। समय और काल के अनुरूप वाद्य-यंत्रों का आविष्कार होता गया तथा कर्णप्रिय लयबद्ध ध्वनि को बार-बार सुनने-सुनाने की ललक में संगीत कला भी समृद्ध होती रही। दूसरी ओर समय और काल के अनुरूप ही प्रचलन से दूर होने वाले वाद्य यंत्र विलुप्त होते चले गए। यह सिलसिला आज भी जारी है। लेकिन विलुप्त हो चुके हजारों वाद्य यंत्र आज भी समकालीन चित्रकलाओं के माध्यम से जीवंत हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि चित्रकला ने वाद्य यंत्रों के इतिहास को धरोहर के रूप में सम्भाल कर रखा है।
भारत में चित्रकला का इतिहास बहुत पुराना रहा है। कंदराओं और गुफाओं में उकेरे गए चित्रों में शिकार, शिकार करते मानव समूह, स्त्रियों तथा पशु-पक्षियों आदि के चित्र मिले हैं। इनमें ही कई चित्रों में ध्वनि संकेत प्रदान करने वाले वाद्य यंत्रों का चित्रण भी है। लेकिन भारत में प्रारंभिक सभ्यताओं द्वारा प्रयुक्त संगीत वाद्य यंत्रों के साक्ष्यों की लगभग पूरी तरह से कमी है, जिससे इस क्षेत्र में सर्वप्रथम बसे मुंडा और द्रविड़ भाषा बोलने वाली संस्कृतियों को साक्ष्यों के अभाव में वाद्य यंत्र विकसित करने का श्रेय देना असंभव हो जाता है। बल्कि, इस क्षेत्र में वाद्य यंत्रों का भौतिक प्रमाण खुदाई में प्राप्त कलाकृतियों के साथ मिले विभिन्न झुनझुने और सीटियों के रूप में मिला है जो करीब 3000 ई. पू. के आसपास की बतायी गयी हैं। इसी कारण भारत में संगीत वाद्य यंत्रों का इतिहास सिंधु घाटी सभ्यता के साथ शुरू होता है। अधिकांश इतिहासकारों का मानना है कि वाद्य यंत्र के आविष्कार का एक विशिष्ट समय निर्धारित कर पाना, परिभाषा के व्यक्तिपरक होने के कारण असंभव है। भारत में वाद्य यंत्रों में हुए बाद के विकास ऋग्वेद या धार्मिक गीतों के साथ हुए। इन गीतों में विभिन्न ड्रम, तुरहियां, हार्प, और बांसुरी का इस्तेमाल होता था। ईसवी की प्रारंभिक सदियों के दौरान उपयोग किये जाने वाले अन्य प्रमुख वाद्यों में शामिल थे-सपेरे की दोहरी शहनाई, बैगपाइप, बैरल ड्रम, क्रॉस बांसुरी, और लघु तम्बूरा। कुल मिलाकर, भारत में देशज वाद्य यंत्रों का लुप्त होना देशीय भाषाओं के लुप्त होने के समान ही है और चित्रकला ने लुप्त हो चुके हजारों वाद्य यंत्रों को यादगार के रूप में सम्भाल कर रखा है।
अभी कुछ दशक पहले तक प्रचलन में रहे कई अत्यंत लोकप्रिय वाद्य यंत्र भी विलुप्त होने के कगार पर हैं, जैसे-जौयां मुरली, हुड़क, रबाब, ढप, तुरही, नागफनी, जोड़ी, सारंगी आदि।
पत्रिका प्रकाशन की कला-संस्कृति संबंधी उत्कृष्ट प्रकाशन श्रृंखला में जयपुर की चित्रकला में संगीत और वाद्य यंत्रों की विशेष भूमिका को लेकर तैयार यह पुस्तक खासकर संगीत और वाद्य यंत्रों के संबंध में पठन-पाठन और शोध कार्यों में जुटे लोगों के लिए विशेष उपयोगी होगी। इस पुस्तक में दर्जनों दुर्लभ चित्रों का संकलन है जो हर पाठक के ज्ञानवर्धन में सहायक होगा, ऐसा हमारा विश्वास है।
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