मानव जाति की वर्तमान दशा अति संकटपूण दिखाई दे रही है। समस्त जगत् में अशान्ति फैल रही है और चारों ओर से आतंक की काली घटाएँ उठ रही हैं। विज्ञान की नवोपलब्ध तथा अत्यन्त भयावह शक्तियों ने हमारे भविष्य को अनिश्चित ही नहीं, अपितु नितान्त आशंकापूर्ण बना दिया है। जहाँ एक ओर अन्तर्राष्ट्रीय एकता तथा सहकारिता की चर्चा दिन प्रति दिन प्रसृत होती जा रही है, वहाँ दूसरी ओर आन्तरिक विद्वेष तथा संदेह अधिकाधिक वर्धित हो रहे हैं। वायुमण्डल में तो विश्वशान्ति का ढिंढोरा पीटा जा रहा है, परन्तु मनों में बड़ी ही व्यग्रता के साथ तृतीय महायुद्ध की तैयारियां जारी हैं।
इस विपद-संकुल स्थिति में भारत जो कुछ कर रहा है उसकी सराहना तो सारे विश्व में हो ही रही है। किन्तु इसमें यथेष्ट सफलता होने नहीं पा रही। कारण यह है कि यह सफलता केवल वाह्य तथा क्रियात्मक प्रयत्नों से ही प्राप्त नहीं हो सकती । इसके लिए मानव जगत् में आत्म-जागृति भी परमावश्यक है। अर्थात् इसमें स्थायी रूप से वाह्य परिवर्तन लाने से पहले इसके अन्दर के विचारों तथा भावनाओं का परिवर्तित होना अनिवार्य है। जड़ पद्मर्थों को तो बाहर से बदला जा सकता है, किन्तु जीवन जगत् में आन्तरिक परिवर्तन के पश्चात् ही रूपान्तर सम्भव होता है।
अतएव वर्तमान युग की परम आवश्यकता यह है कि संसार में जीव-परिज्ञान का उजाला प्रसारित किया जाए। अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति और समस्त राष्ट्र यह जान लें कि "जीवन उद्देश्य क्या है?" जीवन की सफलता और पूर्णता किस बात में है?" "हम यहाँ किस लिए हैं ?" और "परस्पर मिल कर जीने के मौलिक तत्त्व क्या हैं?" हम केवल पुरातन अतीत के अनुगामी होने के स्थान पर नूतन भविष्य के निर्माता हो सकें। और अपने लिए आप ही प्रदीप तथा नियम बन जाएँ ।
जब तक हम यथार्थतः मनुष्य न हो जाएँ, तब तक हम मानवोचित सृष्टि की रचना नहीं कर पाएँगे। संसार को आदर्शानुरूप बनाने से पूर्व अपने को बदलना नितान्त आवश्यक है। हमें सर्वप्रथम स्वयं होना होगा। तभी हम स्वजीवन में स्वधर्म पालन कर सकेंगे। यथार्थ रूप से मनुष्य होकर अपना स्वभावानुकूल कत्र्त्तव्य पालन करना ही एकमात्र मानव धर्म है। और केवल धर्म सूत्र में प्रथित होने पर ही मानवता आन्तरिक ऐक्य तथा शांति प्राप्त कर सकती है। इस नवयुग में हमारे लिए अनेक परम्परागत तथा विभाजक मतों के स्थान पर केवल सहज तथा स्वाभाविक धर्म ही आवश्यक कर्त्तव्य हैं।
सूर्योदय होते ही समस्त कृत्रिम दीपक अनावश्यक हो जाते हैं। इसी प्रकार जीवन-ज्ञान का उजियारा परम्परागत अनेक मतों को अर्थहीन बना देता है। अब समय आ गया है कि हम स्वरूप में जागृत होकर स्वधर्म पालन करना सीखें और क्रम-विकास द्वारा प्राप्त अपनी पैतृक पाशविकता से नियन्त्रित होने के स्थान पर इसे अपने मानवीय उद्देश्यों की सेवा में लगा दें।
जीवन कोई अभिशाप नहीं, एक वरदान है। हम दुःखी व आतंकित हैं तो केवल इसलिए कि हम अभी तक मानवोचित जीना नहीं सीख पाए।
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