शक संवत 1225 में संत ज्ञानेश्वर जी महाराज ने कठिन परिश्रम से इस ग्रंथ की रचना की। श्री ज्ञानेश्वर जी, महाराष्ट्र के 'आलंदी' तीर्थ क्षेत्र के रहने वाले थे। उस समय संस्कृत भाषा को पूर्वतः समझने वाले लोग कम थे। जन-साधारण के पास अपने उद्धार के लिये कोई ज्ञानदीप न था। जनता की इस स्थिति को देखकर ही श्री ज्ञानेश्वर जी महाराज ने यह अनमोल ग्रंथ लिखा और जनता के हाथ मानो 'मुक्ति द्वार' की चाबी दे दी हो। वास्तव में ज्ञानेश्वरी 'गीता' का ही अनुवाद है। आम जनता को 'भगवत्गीता' के गूढ़ विषय को सुलभ करके समझाने हेतु श्री ज्ञानेश्वर जी ने इसमें कई उदाहरण, उपमाएँ और अनेक दृष्टांत विस्तारपूर्वक लिखे हैं। परिणामस्वरूप मूल गीता से विस्तृत (बड़ा) ग्रंथ बन गया, और लोगों ने इस ग्रंथ की प्रशंसा की। सदियों तक लोगों ने इसे शिरोधार्य किया एवं इस पर चर्चा की। ग्रंथ की लोकप्रियता और महत्ता के कारण ही इस ग्रंथ का अनेकों भाषाओं में अनुवाद किया गया। लेकिन आज इक्कीसवीं सदी में पदार्पण करने वाले मनुष्य के पास समय का अभाव है। इस समस्या के निदान हेतु इस ग्रंथ को यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। मैं गीता अर्थात् ज्ञानेश्वरी के अठारह अध्याय संक्षेप में रूपांतरित करना चाहती हूँ परन्तु यह एक अनमोल खजाना (तिजोरी) है; इसमें से कौन सा हीरा लूँ या छोड़ दूँ समझ नहीं पा रही हूँ? मैंने केवल मूल मराठी ग्रंथ का हिन्दी रूपान्तर वह भी सारांश में किया है। इसमें अपनी बुद्धि से या तर्क से कोई भी नई बात नहीं लिखी है फिर भी वाचक इसमें त्रुटियाँ अवश्य पाएँगे जिनके लिये मैं क्षमा प्रार्थी हूँ।
महान सन्त श्री ज्ञानेश्वर जी को कौन नहीं जानता? फिर भी यहाँ उनके बारे में थोड़ा सा लिखना मैं आवश्यक समझती हूँ। श्री ज्ञानेश्वर जी का जन्म महाराष्ट्र के 'नेवासे' गाँव में हुआ था। पिताजी का नाम श्री विठ्ठल पंत और माताश्री का नाम रखुमाबाई था। श्री विठ्ठल पंत जी ने पत्नी की अनुमति के बिना ही सन्यास ग्रहण किया था। श्री विठ्ठलपंत के गुरु श्री रामानंद जी थे। वह काशी निवासी थे। श्री विठ्ठलपंत वहीं पर रहकर गुरु सेवा करते थे। एक दिन श्री गुरुदेव को मालूम हुआ कि श्री विठ्ठलपंत, पत्नी की अनुमति के बिना ही सन्यास लेकर उनकी सेवा में मग्न हैं, और पत्नी पति विरह से पीड़ित है। श्री रामानंद जी ने अपनी दिव्य दृष्टि से यह भी जान लिया कि विठ्ठलपंत जी के चार ऐसे अद्वितीय बालक होंगे, जोकि भविष्य में सारे जगत का कल्याण करेंगे। अतः श्री रामानंद जी ने विठ्ठलपंत जी को तत्काल गृहस्थाश्रम ग्रहण करने की आज्ञा दी। श्री विठ्ठलपंत जी को विवश होकर दुःखी मन से फिर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना पड़ा। तदनंतर उनको पहला पुत्र निवृत्ती, दूसरा ज्ञानेश्वर, तीसरा सोपान तथा चौथी पुत्री मुक्ताबाई-ऐसी चार संतानें प्राप्त हुईं।
श्री माँ मालती देवी बाल जी का जन्म स्थान मिरज, जिला साँगली महाराष्ट्र में दिनांक 20 सितम्बर, 1923 को एक उच्च ब्राह्मण कुल में हुआ। आपके पूज्य पिता श्री पांड्युग जी बड़े समृद्ध, यशस्वी, धर्मानुरागी, सिद्धहस्त, विख्यात राजवैद्य थे। आपकी माताजी श्रीमती रमाबाई स्वभाव की अत्यन्त सरल, शांत, धर्मपरायण और धर्मानुरागिणी थीं। जब आप बहुत छोटी थी तभी आपकी माताजी का स्वर्गवास हो गया। ममत्व के अभाव से जीवन में विषाद की छाया गहरी हो गई थी। प्रभु भक्ति के अंकुर तभी से उनके जीवन में प्रस्फुटित होने लगे थे। इनका लालन-पालन पूज्य पिताजी ने स्नेह की ठंडी छाया में किया, माताजी के निधन के कारण आपकी पढ़ाई देर से प्रारंभ हुई। आपके पिता जी ने अपनी मृत्यु तिथि जान ली थी, इसलिए अल्प आयु में ही आपका पाणिग्रहण कर दिया था। ससुराल में परिवार छोटा था। घर में स्नेह और शान्ति का साम्राज्य था। आपके पति श्री बाल साहब माता-पिता के इकलौते पुत्र है। वे स्वभाव से धर्मपरायण, अनुरागी, सरल विचारों से युक्त एवं त्यागी है।
आप विवाह उपरांत ससुराल में पढ़ती रहीं। परिस्थितियाँ प्रतिकूल होने से शिक्षा अधूरी रह गई। आप बहुत एकांत में प्रभु-भक्ति में ध्यानावस्थित रहने लगी थी, क्योंकि आपके पूज्य पिता पार्थिव देह को त्याग गए थे, इसलिए स्नेह का अभाव अब पति के अनुराग से ही पूर्ण होता था।
श्रीमान बाल साहब नौकरी के सिलसिले में सन् 1943 में मिरज से पूना आए और आप भी उनके साथ पूना में 12 साल रहीं। उसके बाद पूना से दिल्ली आई और सन् 1955 से 1975 तक आपने दिल्ली में वास किया।
संघर्षों के बीच जीवन अपनी गति से चलता रहा। आपकी पाँच पुत्रियाँ हैं और एक पुत्र है। ये सभी सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
सन् 1962 में अक्षय तृतीया की पावन बेला में ऋषिकेष की यात्रा के अवसर पर आराध्य स्वामी श्री शिवानन्द महाराज जी ने आपको तत्त्व दीक्षा से अनुग्रहीत किया। ज्ञान-मार्ग पर अग्रसर आपको श्री शिवानंद महाराज जी ने अपनी एक पुस्तक 'शिवानन्द योगत्रयी' उपहार स्वरूप सन् 1956 में भेंट की। अब आपको जीवन सार्थक बनाने की कुञ्जी प्राप्त हो गई है।
आपको प्रभुभक्ति, तपश्चर्या, धर्मानुराग के अंकुर तो वंश के अनुरुप माता-पिता से प्राप्त हुए थे और अब संसार के दुर्गम मार्ग में ज्ञान-ज्योति फैलाने वाला गुरु-ज्ञान भी प्राप्त हो गया था।
आपकी यह सदैव मान्यता रही है कि मात्र साधना के हेतु गृहस्थ जीवन परित्याग पुरुषार्थ हीनता है। जीवन की सफलता तो गृहस्थ और अध्यात्म के समन्वय में ही है। यही गीता मार्ग है। संसार के पलायन करने पर मोक्ष प्राप्त नहीं होता। अतः आपकी ज्ञान राशि का स्रोत यह संसार ही है, कोई अपार्थिव काल्पनिक लोक नहीं।
आपके दृढ़ संकल्प को अंतर्ज्ञानी श्री गुरुदेव ने अपनी दिव्य शक्ति से समझा, और उन्हें सफलता की क्षमता प्रदान की। ज्ञान-सुधा की प्रिय धारा आप भक्त-जनों में निरन्तर बहाती रहती हैं।
पूज्य गुरुदेव 1963 में ब्रह्मलीन हो गए और अब पूज्य गुरुदेव के मार्ग-दर्शन से माताजी इस समय तपोवन, मिरज में रहकर सत्य, निस्वार्थ प्रेम, आन्नदमय, चेतनामय, अध्यातम्, ध्यान माध्यम द्वारा मानव का मार्ग दर्शन कर रही हैं।
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