भारतीय रतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम व ज्ञानप्रधान संस्कृति है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 3800 वर्ष प्राचीन 30 पांडुलिपियों को विश्व विरासत में सम्मिलित करते हुए भी माना कि ऐसी सुदीर्घ, अक्षुण्ण व पुरातन पांडुलिपियाँ विश्व में अन्यत्र दुर्लभ हैं। ज्ञान प्रधानता के संबंध में अमेरिकी इतिहासविद् मार्क ट्वेन के अनुसार आज के आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की भी कई जानकारियाँ प्राचीन भारतीय हिंदू वाङ्मय में पहले से ही मिल जाती हैं और यह भी संभव है कि भविष्य में होने वाले नवीन अन्वेषणों व आविष्कारों के भी कई संदर्भ प्राचीन भारतीय शास्त्रों में मिल जाएँ। वस्तुतः भारतीय ज्ञान-परंपरा व चिंतन का एकमेव ध्येय ही विश्वमंगल का है। प्राचीन भारतीय ज्ञान कोई रिलीजन सापेक्ष कर्मकांड न होकर सार्वभौम मानवोपयोगी ज्ञान की निधि है।
भारतीय शास्त्रों में अनुपम ज्ञान
प्राचीन भारतीय ज्ञान-परंपरा सार्वभौम मानव कल्याण व संपूर्ण प्रकृति के संरक्षण व संवर्द्धन पर केंद्रित है। उन्नत ज्ञान की दृष्टि से इसमें आधुनिक खगोल शास्त्र, सौरमंडल, अंतरिक्ष विज्ञान व भू-विज्ञान सहित ब्रह्मांड रचना संबंधी अनेक आधुनिक जानकारियाँ प्रचुरता में मिल जाती हैं। शरीर रचना, स्वास्थ्य विज्ञान और गणित सहित भौतिक विज्ञानों के भी अनेक तथ्य आज वेद, वेदांग आरण्यक, उपनिषद्, ब्राह्मण, साहित्य, सूत्र, संहिताओं व अन्य संस्कृत ग्रंथों में प्रचुरता से मिल रहे हैं। अर्थशास्त्र व नागरिक शास्त्र सहित विविध सामाजिक विज्ञानों के साथ ही आधुनिक प्रौद्योगिकी एवं व्यापार-वाणिज्य के उन्नत सिद्धांत भी प्राचीन शास्त्रों में मिलते हैं। यह सार्वभौम मानवोपयोगी ज्ञान कोई रिलीजन सापेक्ष कर्मकांड न होकर, संस्कृति का प्राणतत्त्व एवं विश्व मानवता की चिरंतन विरासत है। वेदों में प्रकाश की गति से लेकर हृदय के विद्युत्-स्पंदनों तक का ज्ञान और ब्रह्मांड की श्याम ऊर्जा से लेकर पाई के सूक्ष्म मान तक के अगणित सूत्र हैं। धातु विज्ञान से विमान शास्त्र तक के अनेक उन्नत विषय उनमें हैं। पृथ्वी की धुरी के स्पंदन से लेकर हृदयगत स्मृति जैसे सभी विषय अत्यंत महत्त्व के हैं। आधुनिक अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान, वाणिज्य ज्ञान, समाज शास्त्र, अंतरराष्ट्रीय राजनय और उन्नत प्रबंध शास्त्र तक का ज्ञान उनमें संकलित है।
विश्व दुर्लभ ज्ञान के विलोपन की चुनौती ज्ञान की इस अनमोल निधि के अध्ययन-अध्यापन को अब तक औपचारिक पाठ्यक्रमों से बाहर रखे जाने से यह ज्ञान-परंपरा सर्वथा विलोपन का शिकार हो रही है। प्राचीन भारतीय शास्त्रों के औपचारिक पठन-पाठन, संरक्षण संवर्द्धन एवं अन्वेषण के अभाव में इनकी व्याख्या में समर्थ विद्वानों की पीढ़ी भी समाप्त होती जा रही है और ये शास्त्र आज स्वाधीन भारत में भी स्थाई विलोपन का शिकार हो रहे हैं। आज वेदों की ही एक हजार से अधिक शाखाएँ विलुप्त हो चुकी हैं। कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' के पूर्ववर्ती अर्थशास्त्र और पाणिनी की 'अष्टाध्यायी' से पूर्ववर्ती व्याकरण भी विलुप्त हो चुके हैं।
पातंजलि के महाभाष्य के अनुसार देश में वेदों की 1,131 शाखाएँ प्रचलित थीं। इनमें से प्रत्येक शाखा के ब्राह्मण साहित्य, आरण्यक व उपनिषद् भी रहे हैं। आज उनमें से मात्र 13 शाखाएँ ही उपलब्ध हैं। शेष 1,119 शाखाएँ देश से विलुप्त हो गई हैं। जर्मन में आज भी 103 शाखाएँ उपलब्ध बतलाई जाती हैं, जिन्हें जर्मन सरकार ने इतना सुरक्षित रखा हुआ है कि उनका अध्ययन वहाँ के शीर्षस्थ विद्वानों द्वारा ही किया जा सकता है। वेद मंत्रों का अर्थ निरुक्त से होता है। प्राचीनकाल में 18 निरुक्त प्रचलित थे। अब भारत में केवल एक यास्कीन निरुक्त ही उपलब्ध है। जर्मनी में 3 निरुक्त उपलब्ध बतलाए जाते हैं। वेद संहिताओं की तुलना में अन्य श्रेणी के लुप्त संस्कृत वाङ्मय का परिमाण बहुत अधिक है। वेद शाखाओं व निरुक्त सहित लाखों ग्रंथ विलुप्त हुए हैं।
केंद्रीय स्तर पर संस्कृत विश्वविद्यालयों व प्रदेशों में जहाँ संस्कृत में आचार्य के 30-40 तक विषय रहे हैं। वहाँ प्रदेशों में अधिकांश संस्थानों में आज 4-6 विषय ही बचे हुए हैं। उनमें भी छात्र व शिक्षक दोनों ही नगण्य होते जा रहे हैं। उनके लिए कॅरियर का अभाव ही रहता है। सभी विद्यालयों में भी वेद, वेदांग, उपनिषद्, आरण्यक, ब्राह्मण, सूत्र, संहिताओं व निरुक्त सहित समग्र संस्कृत वाङ्मय का विद्यालय स्तर से ही व्यापक पठन-पाठन आरंभ होने से विश्वविद्यालय स्तर पर भी इनके अध्ययन, अन्वेषण व अनुसंधान की प्रवृत्ति बढ़ेगी। आज इस ज्ञान के संरक्षण हेतु अखिल भारतीय एवं प्रादेशिक संस्कृत सेवाओं की भी आवश्यकता प्रतीत होती है।
भारतीय ज्ञान-परंपरा का संरक्षण आवश्यक कई करोड़ पृष्ठों में सुविस्तृत प्राचीन संस्कृत वाङ्मय का एक बहुत बड़ा भाग विगत 1200 वर्षों के विदेशी आक्रमणों के दौर में जलाए व नष्ट कर दिए जाने के बाद भी स्वाधीनता के समय तक भी हम बहुत कुछ बचाकर रखे हुए थे। संस्कृत की 1.25 करोड़ पांडुलिपियाँ आज भी विविध अभिलेखागारों में अपठित रखी हैं। उनका पदान्वयन, निर्वचन, भाषांतर व व्याख्या आज के परिवेश में दुष्कर ही नहीं असंभव लगती है। स्वाधीनता के बाद केंद्रीकृत नियमन व सरकारीकृत शिक्षा के अंतर्गत एवं स्वाधीनता के बाद के साढ़े छह दशकों में कई सरकारों के हिंदू नवोत्थान विरोधी सेकुलरीकरण के नाम पर उन्हें औपचारिक मान्यता युक्त पाठ्यक्रमों से निरसित व विलोपित ही कर दिया गया। जबकि विश्व के इस प्राचीनतम एवं सार्वभौम महत्त्व के वाङ्मय को अक्षुण्ण रखना स्वाधीनता के उपरांत सरकारों का प्रथम दायित्व था।
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