भारतीय भक्तिधारा में कबीर का नाम एवं प्रदान अनूठा है। उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन के सूत्रपात में वैष्णव आचार्यों की प्रेरणा महत्वपूर्ण रही। किन्तु भक्ति की पावन धारा को जन-जन तक पहुँचाने में सन्तों की भूमिका उल्लेखनीय रही। उन्होंने तत्कालीन जनभाषाओं में भक्ति की महत्ता प्रचारित करके जन-जन के मानस को भक्तिमय करने का पावन कार्य किया। ऐसे जन कवियों में कबीर का नाम अग्रिम है।
कबीर के बारे में जो संकेत उपलब्ध होते हैं, इसका सारांश यही है कि कबीर का आविर्भाव विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में हुआ। वे व्यवसाय से जुलाहा थे और काशी में निवास करते थे। रामानन्द को उन्होंने गुरु माना था । सिकन्दर शाह का काशी में पदार्पण हुआ और उन्होंने कबीर पर क्रूरतापूर्ण अत्याचार किए थे। कबीर ने 120 वर्ष की आयु पाई थी। उनकी मृत्यु मगहर में हुई थी ।
कबीर निर्गुण की ज्ञानाश्रयी शाखा के सन्त थे। कबीर की अमृतवाणी में राजेन्द्र पाण्डेय ने उचित ही कहा है कि कबीर सबके हैं क्योंकि वे सभी धर्मों को एक ही दृष्टि से देखते हैं। जिस धर्म में उन्होंने रूढ़िगत मान्यताएँ देखी उन पर वहीं अपने शब्दों के डण्डे से चोट पहुँचाई। जातिगत भेदभाव से ऊपर उठकर कबीर ने जिसमें जो बुराई देखी, निर्भय होकर उसे फटकारा । न तो हिन्दू धर्म के पक्ष में लिखा, न मुस्लिम धर्म के पक्ष में लिखा। जहाँ भी कोई कमी नजर आई, डंके की चोट पर स्पष्ट शब्दों में कहा। कबीर सत्य का दूसरा नाम है। उनकी नजर में सत्य ही बल है और सत्य ही जगत का आधार। उन्होंने कहा कि तुम्हारे हृदय में आत्मस्वरूप ब्रह्म का वास है। अतः अपने अन्दर झांककर देखो ।
'साखी', 'सबद' और 'रमैनी' में यही भाव प्रतिध्वनित है। सहज समाधि, गुरु का मार्गदर्शन, चारित्रिक परिशुद्धि और हर जीव में परमात्मा का दर्शन, उनकी मर्मस्पर्शी, सत्यपूत की वाणी राजा, रंक, फकीर या आम आदमी सबको प्रिय लगती है।
रामकुमार वर्मा के शब्दों में, कबीर के काव्य का प्रभाव इतना व्यापक रहा है कि देश-काल की सीमाओं को पार करके वह अनेक भाषाओं में अनूदित हुआ। उन्होंने जाति, वर्ग एवं सम्प्रदायों की सीमाओं का अतिक्रमण करके ऐसे मानव धर्म और मानव समाज की स्थापना की जिसमें भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण रखने वाले व्यक्ति भी निःसंकोच होकर सम्मिलित हुए । यही कारण है कि कबीर पंथ में हिन्दू और मुसलमानों का प्रवेश समान रूप से देखा जाता है। जीवन की स्वाभाविक और सात्विक कियाशीलताओं में ही धर्म की व्यवस्था है, जिसका प्रसार उन्होंने सबदों और साखियों में किया।
'कबीर' के सम्पादक प्रो. विजयेन्द्र स्नातक का मन्तव्य था कि कबीर साहब सहज में आस्था रखने वाले मानववादी व्यक्ति थे। इस्लाम को स्वीकार करने पर भी मजहबी कट्टरता से वे कोसों दूर थे। उनका कोई लगाव किसी रूढ़ और अन्धविश्वासों में नहीं था। दृदय की स्वच्छ कसौटी पर विवेक को जो खरी लीक लगती, उसे ही कबीर साहब खरी मानते थे।
श्यामसुन्दर दास जी ने 'कबीर ग्रंथावली' का सम्पादन किया है। इसके अलावा 'कबीर की अमृतवाणी', 'कबीर दोहावली', 'कहे कबीर सुने कबीर' आदि नामों से कई विद्वानों ने कबीर साहित्य को सुलभ बनाने का प्रयत्न किया है, जो श्लाध्य है। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने भी कबीर-साहित्य का विद्वतापूर्ण अध्ययन किया है और उनकी भाषा के बारे में लिखा है कि भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे।
कबीर पंथ के अनेक मन्दिर एवं अनुयायी है। गुजरात में भी कबीर उतने ही लोकप्रिय है। शुक्लतीर्थ, जिला भरुच के पास खड़े विशाल वटवृक्ष के साथ कबीर का नाम जुड़ा हुआ है, जो आज भी 'कबीर वड' के रूप में दर्शनीय है।
वैद्य की खिड़की, चकलेश्वर महादेव के पास रायपुर चकला अहमदाबाद स्थित 'कबीर मन्दिर' गोदड़ स्वामी के सन्त निर्मददास जी ने 'कबीर' पर विशेष गोष्ठी आयोजित करने की हमारे साथ चर्चा की और गुजरात साहित्य अकादमी (हिन्दी) के अध्यक्ष और जानेमाने कवि-साहित्यकार सम्मान्य श्री भाग्येश जहा ने हिन्दी साहित्य परिषद, अहमदाबाद के 'कबीर की प्रासंगिकता' विषय पर परिसंवाद आयोजित करने के हमारे प्रस्ताव का आर्थिक अनुदान समेत सानन्द स्वीकार किया । एतदर्थ उनका तहेदिल से शुक्रगुजार हूँ। अकादमी के महामात्र श्री मनोज ओझा का भी ऊष्मापूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ ।
लेकिन मुझे विशेष कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए गुजरात के सम्मान्य राज्यपाल महोदय श्री ओम प्रकाश कोहली जी की, जिन्होंने इस परिसंवाद का मुख्य अतिथि के रूप में उद्घाटन किया। राज्यपाल महोदय स्वयं कबीर साहित्य के गहरे अध्येता हैं। साहित्य, संस्कृति और शिक्षा के प्रति उनका लगाव अनन्य है। उन्होंने तकरीबन एक घण्टे से भी अधिक समय के लिए 'कबीर की प्रासंगिकता' विषय पर विद्वतापूर्ण एवं विश्लेषणात्मक ढंग से सोदाहरण इस विषय को पूर्णतः न्याय दिया इससे श्रोतावृन्द अभिभूत हो गया था और आज भी इसका स्मरण करते रहते हैं।
कुल 12 वक्ताओं ने कबीर के जीवन, व्यक्तित्व, विचारधारा, दार्शनिकता एवं प्रासंगिकता पर परिश्रमपूर्वक आलेख तैयार करते हुए वक्तव्य प्रस्तुत किया, वे सब अभिनन्दन एवं धन्यवाद के अधिकारी है। परिषद के उपाध्यक्ष डॉ. किशोर काबरा, महामंत्री श्री हरीश द्विवेदी, संयुक्त मंत्री श्री सन्तोष सुराणा सहित विविध पदाधिकारियों एवं कार्यकारिणी के सदस्यों ने संन्निष्ठ सहयोग प्रदान करते हुए जो सहयोग दिया उनका भी मैं आभारी हूँ।
हमारे प्रस्ताव का स्वागत करते हुए गुजरात साहित्य अकादमी (हिन्दी) के अध्यक्ष श्री भाग्येश जहा ने 'कबीर की प्रासंगिकता' विषयक सामग्री को पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने की मंजूरी दी है, उनके साहित्य प्रेम को सादर नमन ।
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