जन्म : राजेन्द्र प्रसाद गोस्वामी "काका जी" का जन्म ग्राम-नाकोट, जिला-रुद्रप्रयाग (उत्तराखण्ड में हुआ)।
पिता का नाम: स्व. श्री श्री देवराम गिरि गोस्वामी।
माता जी प्रातः स्मरणीय स्व. श्रीमती शान्ता गिरि।
शिक्षा : इण्टरमीडिएट परीक्षा के बाद धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों में संलग्न।
सहयोग : पूर्व में उत्तर प्रदेश युवा परिषद सदस्य तथा पूर्व में अवैतनिक वृक्ष प्रतिपालक तथा वन प्रभाग कर्णप्रयाग में संयुक्त वन प्रबन्धन समिति के सदस्य रहे।
अभिरुचि फुटबाल, शतरंज, चित्रकारी,
कविता-लेखन, सामाजिकता के कार्यक्रमों में अतिधकतम व्यस्तता, शास्त्र संगीत, फोटोग्राफी तथा लोक संस्कृति सम्बन्धी तथ्यों का चिन्तन।
सम्प्रति : वर्तमान में श्री अगस्त्य संगीतालय का संचालनकत्व।
प्रकाशन: कविता संग्रह, (गढ़वाली) तथा गढ़वाल की घटनाओं पर आधारित कहानियाँ तथा प्राचीन लोक कथाओं का संग्रह प्रकाशनाधीन ।
कथायें मानव जीवन की प्रेरणा स्रोत होती हैं। जबकि कथायें भी घटनाओं की जीवन्तता से ही उभरती हैं। कभी कोई उदाहरण आगे चलकर कथा बन जाती है, यही घटित कथायें आने वाली पीढ़ी के लिए सम्बल बन जाती हैं। कथायें मनुष्य का मनोरंजन ही नहीं करती हैं, अपितु मानव में आत्मविश्वास की भावना को भी जागृत करती हैं साथ ही संघर्षों से डटकर लोहा लेने की शक्ति भी प्रदान करती हैं। इस कथा संग्रह-संकलन 'कथा कथेर' में क्रमशः 'ओम नमो नारायण माई जी, अन्नाद्भवन्ति, कैप्टेन बचनू दा और पिस्यान का झाडू नामक कहानियाँ मेरी ठेठ अपनी रचनायें हैं। शेष अन्य कथायें हमारे उत्तराखण्ड की ग्रामीण परिवेश की हैं।
'कैप्टेन बचुना दा' यह कहानी बछणस्यूं पट्टी (रूद्रप्रयाग जनपद) के किसी गांव की है। प्रस्तुत पुस्तक में उत्तराखण्ड रूप पुरातन लोक-कथाओं का संग्रह प्रस्तुत किया गया है। कथायें सामाजिक एवं सांस्कृक्तिक पृष्ठभूमि पर आधारित है।
मैंने अपनी कल्पना तथा सामाजिक रीतिरिवाजों के अनुसार सम्पूर्ण कहानियों को प्रस्तुत कर दिया। अब यह तो पाठकों की बात होगी कि वे मेरे प्रयास को किस रूप में ग्रहण करते हैं।
कथायें मानव जीवन की प्रेरणास्त्रोत होती है। जबकि कथायें भी घटनाओं की जीवन्तता से ही उभरती है। कभी कोई उदाहरण आगे चलकर कथा बन जाती है। यही घटित कथायें आने वाली पीढ़ी के लिए सम्बल बन जाती है। किसी भी दुखः विपत्ति में पुरातन कथाओं आख्यानों का उदाहरण दे कर थक-हार चुके मनुष्य की जिजीविषा को जागृत किया जाता है। महाभारत के वन पर्व में नाना उपाख्यान इस तथ्य के उदाहरण हैं। प्रत्येक भिन्न-भिन्न देश, जाति, धर्म, सम्प्रदाय की पुस्तकों में या जन मानस में किसी न किसी प्रकार से लोक कथाओं का समृद्ध भण्डार उपस्थित है। यही लोक कथायें उनकी संस्कृति की पहिचान भी है तो वहां की समृद्ध परम्परा बन गई होगी।
कथायें मनुष्य का मनोरंजन ही नहीं करती है, अपितु मानव में आत्म विश्वास की भावना को भी जागृत करती है। साथ ही संघर्षों से डटकर लोहा लेने की शक्ति भी प्रदान करती है। प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक में कथाओं की अपनी मान्यता सिद्ध है। दादा-दादी के जमाने में देर रात तक कथा कहानियों का दौर चलना, मजाल थी कि किसी सुनने वाले को नींद आ जाय। यहां की ग्रामीण संस्कृति के अनुसार घर गृहस्थी के कार्यों के साथ-साथ शीतकाल में कथा सुनने सुनाने का रिवाज जैसा था। हमें याद है, दादा जी की तकली पर ऊन कातना और साथ-साथ कथायें सुनाकर हम सबको मंत्रमुग्ध करना उनकी एक विशिष्ठ शैली थी। रोचकता के साथ कहानियां कहने वाले-कचेर का समाज में सम्माननीय स्थान होता था।
आज से लगभग सत्तर साल पहले तक हमारे ग्रामीण समाज में मनोरंजन में ढोल दमाऊ की ताल में "चैत्वाली गीत, पाण्डव कौथीक, बगड्वाल, नाग नरसिंग-भैरों, सिध्वा, रतोला, देवी-गढ़ देवी मण्डाण कौथीग या फिर बेड़ा बेड़नी (विद्याधर) का नाच-गान भी समय-समय पर होता रहता था। या तो हमारी परम्परागत नृत्य शैलियां जैसे झुमेला, चौफुला, थड़िया, तांदी, छपेली, आदि का सामुहिक त्यौहार के नाच गान। कभी विभिन्न देवी देवताओं की डोली जातरा (दिवारा) भी उत्सव मनोरंजन के स्वस्थ तथा धार्मिक कारक थे और हैं। इसी प्रकार शादी बारातों में या तो ढोल-दमों की तालों के साथ नाचने का सुघड़ प्रयास या बेड़ाओं के गीत हुनर का ढोलक की थाप पर नाचती बेड़नी के घुंघरूओं की झनकार सुन्दर मनोरंजन करते थे।
हमारे पार्वत्य प्रदेष में मनोरंजन की वीर रस प्रधान एक विधा और थी, जिसे हुड़क्या कहा जाता था। (था, इसलिए कि अब यह विद्या लुप्तप्राय है) ये लोग हुड़का नामक वाद्य को बजाते हुए वीर रस प्रधान गीत गाते हुए स्वयं भी नाचते थ। ऐसे-जैसे कि कोई तलवार बाज पैंतराबाजी कर रहा हो। ये लोग गढ़वाल के वीर राजपूतों या वीर भड़ों की लड़ाई का बखान करते थे गीत शैली में। ये वीरगाथा गीत-रौतों की की तलवार, भण्डारयूं की तलवार, कठैतों की तलवार, राणों की तलवार, माधों सिंह भण्डारी की गाथा, रिख्वालू लोदी की गाथा का गान हुड़की बजा-बजा कर धीं हैं, धकीं, धकीं, धें, धें करके फुदक-फुदक कर नाचते गाते थे। कहा जाता है कि ये लोग स्वयं भी नाचते गाते वीर रस में सराबोर हो जाते थे तथा स्त्रोता दर्शक भी जोश में आ जाते थे। सुनते हैं कि एक (जागीरदार राजपूत) की शर्त पर हुड़का ने वीर गाथा गाते हुए नाचते-नाचते दन्न से उछल कर नीचे आंगन से ऊपर नौ फिट ऊंची दीवार में छलांग लगा कर उस जमाने के चांदी के पांच कलदार (एक-एक तोले के पांच सिक्के) इनाम में प्राप्त किये थे। हुड़क्या लोग आम जनता में वीरगाथा के लिए बहुत सम्मानित होते थे। किन्तु दुखद विषय है कि यह विद्या आज लुप्त प्राय है।
लगभग ऐसे ही धार्मिक मेले भी हमारे पार्वत्य प्रदेश में बहुतायत से ऐसे थे। अब भी हैं, लेकिन अब उनका स्वरूप बदल सा गया है। सामाजिक रूप से आस्थायें भी बदलने लगी है। इससे पारम्परिक मेलों का वास्तविक, प्राकृतिक स्वरूप अब नौटंकियों में बदल चुका है। जो कि दुखद है। इन सबके बीच कथाओं का बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्राचीन काल से ही रहा है। ठीक ऐसे ही जैसे कि शास्त्रीय संगीत और लोक संगीत होता है उसी प्रकार पुराणों की कथायें और लोक-कथायें अपने स्थान पर महत्वपूर्ण होती हैं। मैंने बहुत गहराई से काका जी की स्वरचित घटना प्रधान कथाओं तथा संगृहीत लोक कथाओं को पढ़ा तो अपने बचपन की स्मृति हो आई कि जब हमारे दादा-दादी हमको इसी प्रकार की रोचक कथाए सुनाया करते थे। हां यह बात जरूर है कि दादी-दादा की कथाएं अपनी ठेठ गढ़वाली भाषा में होती थी और श्री काका जी ने इन्हें हिन्दी भाषा में पिरोया है। फिर भी अपनी आंचलिकता की छाप तो कहानियों में स्पश्ट कर ही दी काका जी ने। अपने इस कथा संग्रह में लुप्तप्राय गढ़वाली शब्दों को पिरोया गया है। यथा-पत्तबीड़ा, अगेला, ढबाड़ी, भैलू, पाथा, कोठार, कोदमाण्डी, गुलबन्द, पाखली, आंगड़ी, भेरण, आदि षब्दों में हमारी संस्कृति का प्रकाश झलकता है।
इस पुस्तक में काका नाकोटी जी ने गढ़वाल की पुरातन लोक कथाओं का संग्रह प्रस्तुत किया है। कथायें सामाजिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठ भूमि पर आधारित है। यह एक सराहनीय प्रयास है। न जाने और भी कितनी ज्ञानोपयोगी लोक कथायें नेपथ्य से झांक रही होंगी। इन्हें भी रंगमंच पर जाने का प्रयास होना चाहिए। इस सन्दर्भ में में संस्कृति निदेशालय उत्तराखण्ड का धन्यवाद अवश्य करूंगा कि उनके द्वारा इस पुस्तक के प्रकाषन हेतु सहयोग प्रदान किया गया। इसके लिए संस्कति निदेशालय उत्तराखण्ड सरकार का कोटिशः धन्यवाद करेंगे।
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