भारतीय-काव्यशास्त्र के अध्येता के सम्मुख जब भी किसी काव्यशास्त्रीय विषय पर चर्चा का अवसर उपस्थित हुआ है, तो उसने आचार्य मम्मट की अमरकृति "काव्यप्रकाश" का उल्लेख करते हुए ही अपने कथन या वक्तव्य की चरितार्थता का अनुभव किया है। भूमण्डल में आधुनिक विज्ञान की भाँति, महाकवियों की काव्यसृष्टि में तत्त्वान्वेषण की विशिष्ट समीक्षा के परिणामस्वरूप शब्दाधान की जिन परम्पराओं का आविर्भाव हुआ, उन्हीं की अभिव्यक्ति पुंज की संज्ञा वनीं "उक्ति-वैचित्र्य", भङ्गीभणिति, रसाभिव्यंग्य, ध्वनिप्रस्थापन, गुणीभूत-व्यंग्य आदि-आदि। ये सभी अवधारणायें ग्रन्थ में साकार होकर विद्वत्समाज का अंग बनती चली गयीं। सरस्वतीधाम कश्मीर की नैसर्गिक छटा में कविभारती को दार्शनिक समीक्षण का पुट देते हुए मनोमाणिक्य की उज्ज्वल ज्योति से समस्त काव्यशास्त्रीय मान्यताओं की समीक्षात्मक अभिव्यक्ति में अपनी जिस प्रखरप्रतिभा का परिचय मम्मट ने दिया है, उसी का मूर्त रूप है- "काव्यप्रकाश"।
मधु-संग्राहिका के परिश्रम व फल को कौन नहीं जानता, जो निरन्तर अनेक उद्यानों की पुष्पवाटिकाओं से मधुचयन कर, पुनः उसे अपने छत्ते मे संजोकर रखती है। ठीक इसी प्रकार मम्मट ने विभिन्न आचार्यों की काव्यवाटिकाओं से शब्द, अर्थ दोष, गुण-अलंकारों का परिशीलन कर विभिन्न पुष्पों में विखरित मकरन्द को कलात्मक ढंग से एकत्रित कर, आस्वाद कलाविद् विद्वद्रसमाज के सम्मुख प्रस्तुत किया है।
नवम शताब्दी के मध्य तक विद्वद् समर्थित इस आस्वाद को ध्वनि-सिद्धान्त के नाम से काव्यशास्त्र के क्षेत्र में पूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्त हो चुकी थी, ध्वनिकार आनन्दवर्धन द्वारा आलंकारिक परम्परा का विच्छेद कर अलंकार्य व अलंकार का यथोचित विभाग कर दिया गया था, इसके साथ ही गुण व अलंकार का विवेक, गुण विभाग तथा दोनों की काव्यात्मा रस के आन्तरिक व बाह्य धर्मो के रूप में स्थापना कर दी गयी थी।
ध्वनि-सिद्धान्त की इस व्यापक व्यवस्था के बाद भी कुछ कश्मीरी आलंकारिकों ने इसे स्वीकार नहीं किया। वक्रोक्ति सम्प्रदाय के संस्थापक आचार्य कुन्तक ने ध्वनि-सहचारी नवीन कल्पना के बल पर काव्य के मूल सिद्धान्तों का पुनराख्यान करते हुए आचार्य आनन्दवर्धन की सार्वभौम प्रतिष्ठा को आघात पहुंचाया।
इसी परम्परा में कश्मीर निवासी आचार्य महिमभट्ट ने ध्वनिकार का प्रबल विरोध किया। मूलतः नैयायिक महिमभट्ट ने अपने ग्रन्थ "व्यक्तिविवेक" में ध्वनि तथा व्यंजना-वृत्ति का प्रबल खण्डन किया है। अनुमान के अन्तर्गत ध्वनि की सिद्धि का इनका प्रयास ही प्रौढ़ ग्रन्थ के रूप में सामने आया। इन्होंने ध्वनिकार के ध्वनिलक्षण का प्रतिपद खण्डन कर, लगभग चालीस उदाहरणों की समीक्षा को अनुमान में ही गतार्थ कर दिया। यह मानना होगा कि अपनी प्रौढ़ प्रतिभा से महिमभट्ट ने सम्पूर्ण ध्वनि-सिद्धान्त को काव्यशास्त्र के क्षेत्र से सदा के लिए मिटा कर उसके स्थान पर अनुमितिवाद को प्रतिष्ठित कर देना चाहा, जिसकी उद्घोषणा उन्होंने ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही कर दी है।
विरोधी आचार्यों की तर्कताण्डवात्मक प्रवृत्ति के मध्य फंसी और डगमगाती ध्वनिप्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व मम्मट पर आ पड़ा था, सरस्वती-वरदहस्त ने अपनी उपासना व प्रतिभानैर्मल्य का परिचय देते हुए इन ध्वनिविरोधी आचार्यों का प्रत्युत्तर दिया और ध्वनि की पुनः स्थापना कर उसकी प्रतिष्ठात्मक नीव को इतना दृढ़ कर दिया कि आगे किसी भी आचार्य को विरोध-पुनरावृत्ति का अवसर ही प्राप्त न हो सका। ध्वनि-प्रस्थापन परमाचार्य की इसी तेजोमय शब्दराशि के प्रत्यक्ष प्रामाणिक ग्रन्थ का गौरवान्वित कलेवर है-"काव्यप्रकाश"
Hindu (हिंदू धर्म) (13443)
Tantra (तन्त्र) (1004)
Vedas (वेद) (714)
Ayurveda (आयुर्वेद) (2075)
Chaukhamba | चौखंबा (3189)
Jyotish (ज्योतिष) (1543)
Yoga (योग) (1157)
Ramayana (रामायण) (1336)
Gita Press (गीता प्रेस) (726)
Sahitya (साहित्य) (24544)
History (इतिहास) (8922)
Philosophy (दर्शन) (3591)
Santvani (सन्त वाणी) (2621)
Vedanta (वेदांत) (117)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist