पुस्तक परिचय
आत्मानुभूति का मार्ग इस खोज से प्रारम्भ होता है कि जीवन का स्रोत या कारण क्या है? किसके द्वारा, कैसे और क्यों हम सब में चेतना व्याप्त हुई - जो जीवनदायनी शक्ति है तथा हमें जगत् को जानने व प्रतिक्रिया करने की शक्ति देती है। इससे सम्बन्धित ज्ञान ही केनोपनिषद् का मुख्य विषय है। गद्यात्मक व पद्यात्मक शैली से युक्त यह उपनिषद् एक छोटा ग्रन्थ है जो परब्रह्म परमात्मा अर्थात् शाश्वत् सत्य का न केवल विवेचन करता है बल्कि उसकी अनुभूति का मार्ग भी स्पष्टता से बताता है।
स्वामी चिन्मयानन्द जी द्वारा की गई केनोपनिषद् की विस्तृत व्याख्या हास्य-विनोद तथा सटीक उपमाओं व दृष्टान्तों के कारण बहुत रोचक एवं सरल है। यह पूर्वकाल के बहुमूल्य ज्ञान की वर्तमान संदर्भ में अत्यन्त उपयोगी प्रस्तुति है।
प्रकाशकीय
सामान्यतः यह धारणा है कि विज्ञान और धर्म एक-दूसरे के विरोधी हैं। विज्ञान के समर्थक जो अपने-आपको सबसे ज्यादा युक्तिसंगत होने का दावा करते हैं, वे धर्म को अवैज्ञानिक तथा अंधविश्वास पर आधारित मानते हैं। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि ये वैज्ञानिक अभी भी यह मानते हैं कि बौद्धिक प्रक्रिया और प्रयोगों के द्वारा वे एक न एक दिन जीवनतत्त्व यानी परम सत्य को भी खोज निकालेंगे।
प्रस्तावना
धर्म मनुष्य जीवन की विशिष्टता है। मनुष्य को छोड़कर अन्य सभी प्राणियों का स्वभाव नैसर्गिक होता है, जिसमें परिवर्तन की कोई संभावना नहीं होती। अन्य प्राणियों का जीवन पेट भरने, सोने और मैथुन आदि सहज शारीरिक क्रियाओं तक ही सीमित रहता है। वहीं दूसरी ओर मनुष्य रोटी, कपड़ा, मकान और मनोरंजन के पर्याप्त साधन होने के बावजूद भी पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो पाता। उसके अन्दर कहीं गहरे शाश्वत् और निरपेक्ष आनन्द की चाह शेष बनी रहती है। जब तक भौतिक सुख सुविधाओं की कमी रहती है तब तक तो वह उन्हें एकत्र करने में ही प्रयत्नशील रहता है, परन्तु इनकी पूर्ति होते ही उसके अन्दर छिप कर बैठी शाश्वत् आनन्द की ललक जिज्ञासा बनकर सामने आने लगती है। ऐसा मनुष्य फिर जीवन के मूल उद्देश्य के बारे में सोचना प्रारम्भ कर देता है।
हमारे अन्तरतम् में विद्यमान आत्मानन्द की प्यास उसी साधक को अनुभव होती है जो विवेकवान है और जिसका मन अन्तर्मुख होकर अपेक्षाकृत शान्त हो गया है। आत्मसुख की जिज्ञासा विकासशील मनुष्य में ही उठती है वरना जगत् में हमें दो पैर वाले जानवर ही मनुष्य के रूप में देखने को मिलते हैं।