हमारी भीतरी चेतना का केन्द्र अद्भुत, अनुरन एवं महान् से महान् परम शक्ति का पुंजश्वरूप है। यही शक्ति हमारे मस्तिकीय हृदय-स्थल में मन, बुद्धि, वित एवम् अहंकार रूपी विभिन्न वृत्तिक्र अन्तःकरण को जाती है और यही शक्ति मस्तिकीय विभिन्त स्थलान्तरों में देवते, सुनते, सूघते चव्रते एवं छूने की ज्ञानेन्द्रियों को सवेत करती हुई, उन्हें एक ओर से अन्तःकरण के साथ और, दूसरी ओर से उनके अपने-अपने बाह्य-शरीर में बने, आंख, कान, नाक, मुख एवं त्वचा रूपी छिद्रात्मक द्वारों के साथ जोड़े रहती है और उनके माध्यम से सकल प्रपंच की सत्ता, स्थिति एवं विविध प्रकार की प्रवृत्ति के बारे में प्रतिक्षण सूचना स्वरूप अनुभव पाती तथा उसके सम्बन्ध में अनुचिन्तन करती रहती है।
हमारी उक्त ज्ञानेन्द्रियों की बाह्य जगत् के साथ अपना-अपना संसर्ग स्थापन करने की क्षमता विभिन्न मात्रक होती हुई, कुन मिलाकर, अतिसीमित है। जब तक किसी गर्न अथवा ठंडे एवं रूखे-सूखे अथवा मृद पदार्थ का हमारी त्वचा के साथ साक्षात् संयोग नहीं हो पाता, तब तक हम उस पदार्थ के उन गुणों का कुछ भी अनुभव प्राप्त नहीं कर सकते । इसी प्रकार, जब तक मधुर, लवण, अम्ल, कटु, तिक्त एवं कषाय, इन छः रसों में से किती अथवा किन्हीं से विशिष्ट पदार्थ हमारे मुख में जाकर जिह्वा पर पड़ नहीं जाता, तब तक हमें उसके इन रसों के सम्बन्ध में कुछ भी अनुभव नहीं हो पाता । स्पर्शेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय की अपेक्षा घ्राणेन्द्रिय कुछ दूरी से भी अपने विषय-भूत पदार्थों की सुगन्धि, दुर्गन्धि श्रथवा साधारण गन्ध को ग्रहण कर लेती है। उससे भी कुछ अधिक दूरी से श्रवणेन्द्रिय और उससे भी कुछ और दूरी से नेत्रेन्द्रिय अपने-अपने विषयों अर्थात् शब्द अथवा रूप को पकड़ लेती हैं। परन्तु, इन सभी इन्द्रिय-शक्तियों की अतिसीमित पहुँच से परे भो, कह सकते हैं, अनन्त दूरी तक ब्रह्मांड फैला हुआ है, जिसकी सत्ता का हमें कुछ-कुछ अनुभव अपनी-अपनी अन्तः-करणीय कल्पनात्मक उड़ान द्वारा एवं वैज्ञानिक वेध-शालाओं में लगातार किए जा रहे नये से नये प्रत्यवेक्षणों और परीक्षणों द्वारा प्राप्त होता रहता है। हमें इस प्रकार प्राप्त होने वाला, अनुभव, मुख्यतः, दो प्रकार का है, एक तो वह है जो भिन्न-भिन्न पदार्थों की स्थितियों की पारस्परिक समीपता अथवा दूरी से सम्बन्धित है और दूसरा वह जो भिन्न-भिन्न पदार्थों में अथवा उनके द्वारा सम्पन्न होती रहने वाली घटनाओं की पारस्परिक पूर्वता अथवा उत्तरता से सम्बन्धित होता है ।
मानव का जीवन-व्यवहार अपने समीप एवम् अपने से दूर की विभिन्न घटनाओं के पौर्वापर्य पर आधारित रहता है। इसलिए, वह इस पौर्वापर्य की सापेक्ष मात्राओं के बारे में अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त करने में सदा से प्रवृत्त रहा है। आकाश में चमकने वाले एवम् गति करते हुए देख पड़ने वाले तारागण की, विशेषतः, सूर्य और चन्द्रमा की भिन्न-भिन्न स्थितियों एवम् अवस्थाओं के लगातार प्रत्यवेक्षण और उसके सम्बन्ध में तर्क-वितर्क का अभ्यास कर सकने से ही मानव की उक्त खोज का मार्ग, पर्याप्त रूप में, प्रशस्त हो पाया है। इसने सूर्य और चन्द्रमा के उक्त अध्ययन के आधार पर की गई गणनाओं की जिस प्रक्रिया के अनुसार दिन, रात्रि, पक्ष, मास, ऋतु एवम् वर्ष तथा इनके श्रध्य श्रवाःतर सूक्ष्मातिसूक्ष्म विभागों की पारस्परिक पूर्वोत्तरताओं एवम् श्रवधियों का ज्ञान प्राप्त किया है, उसी के बारे में सर्व-साधारण के सुगम बोध के लिए इस लघु पुस्तक में दिग्दर्शन कराया गया है।
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