प्रस्तुत संकलन का यह दूसरा संस्करण है।
कविताओं के किसी भी संग्रह का पुनर्मुद्रण सुखद विस्मय का कारण होता है, और कवि के लिए तो और भी अधिक। मेरी तो यही धारणा थी कि कितनी नावों में कितनी बार के लोकप्रिय होने की सम्भावना बहुत कम है, यद्यपि उस में कुछ कविताएँ ऐसी अवश्य हैं जिन्हें में अपनी जीवन-दृष्टि के मूल स्वर के अत्यन्त निकट पाता हूँ। इस बात को यों भी कहा जा सकता है- और कदाचित् इसी तरह कहना ज्यादा सही होगा कि उस जीवन-दृष्टि के ही लोकप्रिय होने की सम्भावना बहुत कम है! यह इसलिए नहीं कि उस में सच्चाई या गहराई की कमी है, बल्कि इसलिए कि हमारे समाज की अद्यतन प्रवृत्तियाँ उन मूल्यों को महत्त्व नहीं देती हैं जो इस दृष्टि का आधार हैं। जो मूल्य-दृष्टि भौतिक जीवन की बाहरी सुख-सुविधाओं को गौण स्थान देती हुई लगातार एक सूक्ष्मतर कसौटी पर बल देना आवश्यक समझे, जो इस से भी न घबराये कि जीवन की प्रवृत्तियों और महत्त्वाकांक्षाओं के प्रति ऐसा परीक्षणभाव सफलता की खोज को ही जोखम में डाल सकता है, वह 'लोकप्रिय' नहीं हो सकती, भले ही थोड़े से लोग उसे महत्त्व देते रहें, बल्कि उस से प्रेरण, भी पाते रहें।
यों यह मैं जानता हूँ कि इस संग्रह का दूसरा संस्करण लोकप्रियता का मानदण्ड नहीं है। काफी लम्बे अन्तराल के बाद दूसरे संस्करण की नौबत आयी है, यहाँ तक कि उस के लिए पाण्डुलिपि तैयार करते हुए मुझे मानो नये सिरे से उस की रचनाओं से परिचय प्राप्त करना पड़ा है! और यह तो है ही कि इस संग्रह पर ज्ञानपीठ पुरस्कार दिये जाने की घोषणा से लोगों का ध्यान इस की ओर आकृष्ट हुआ है जो यों शायद कविता में भी विशेष रुचि न रखते हों। सच कहूँ तो स्वयं मुझे पुरस्कार की घोषणा से आश्चर्य हुआ और मैंने एक बार पुस्तक उलट-पुलट कर देखी- इस कुतूहल से कि इस में कौन-सी बात हो सकती है जो पुरस्कार के निर्णायकों को प्रभावित करे !
इस बात को स्वीकार करने का आशय यह नहीं है कि पाठक कविताओं को उन के आत्यन्तिक मूल्य की दृष्टि से न देखें-मैं ऊपर कह ही चुका कि इन में से कई कविताएँ उस जीवन-दृष्टि को अभिव्यक्त करती हैं जो आज भी मेरे कर्म-जीवन की प्रेरणा है। पाठक से मेरा यही अनुरोध होगा कि वे इन कविताओं को पढ़ें, उन का आस्वादन करें और उन के मूल्यांकन की ओर प्रवृत्त हों, तो यही बात ध्यान में रखें। पुस्तक पुरस्कृत हुई, इस से एक हद तक लेकिन एक हद तक ही यह परिणाम निकाला जा सकता है कि शायद उस जीवन-दृष्टि को भी कुछ अधिकारी अथवा पारखी समीक्षकों का अनुमोदन मिला है और यह कौन नहीं चाहेगा कवि अथवा काव्य-रसिक कि जो उसे अच्छा लगता है उसे ऐसे व्यक्तियों का अनुमोदन प्राप्त हो!
कविताएँ आप के सामने हैं। इस से आगे वे ही प्रासंगिक हैं-कवि नहीं।
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