शील विनय आदर्श शिष्ठता, तार बिना झंकार नहीं है शिक्षा क्या स्वर साध सकेगी यदि नैतिक आधार नहीं है भौतिकता के उत्थानों में जीवन का उत्थान न भूलें। निर्माणों के पावन युग में हम चरित्र निर्माण न भूलें।
भारतीय ललित कलाओं की ज्ञानप्रणाली परंपरा तथा नवाचार इस ग्रंथ को लोकार्पित करते हुआ मुझे अतीव आनंद की अनुभूति हो रही है। यह ग्रंथ ऐसे आलेखोंका संकलन है एक संकलित ग्रंथ है, जिसमे विविध कलाओंकी ज्ञानप्रणाली में आधुनिक युग में आए परिवर्तन, उनकी आवश्यकता तथा उपादेयता के बारेमे चिन्तन किया गया है। भारतीय ज्ञान प्रणाली यह विषय अपने आप में अत्यंत व्यापक होने के कारण केवल संगीत और अन्य कलाओं का ही इस ग्रंथ के लिए मर्यादित रूप में विचार किया गया है। इस ग्रन्थ की विषय सूची बनाते समय किसी भी विषय की पुनरावृत्ति न हो इसी प्रकार की योजना बनायीं गयी। संगीत सम्बंधित आलेखों के लिए भी विविध विषयों पर विचार मंथन कर विषय का सारगर्भित निष्पादन हो इस उद्देश्य से सर्वसमावेशक सूची निर्माण की गयी जिसपर गायन, वादन तथा नृत्य इन तीन प्रमुख ललित कलाओं के साथ ही शिल्प, चित्र, नाट्य, आदि विधाओं के विशेषज्ञों ने भी इस ग्रंथ में अपना अमूल्य योगदान दिया है।
आधुनिक युग में इस विषय का महत्व विशद करने की आवश्यकता कतई नहीं है। इस विषय को पुनः प्रकाश में आने का कारण है सन 1920 में पारित हुई नयी शिक्षा प्रणाली। हमारे देश की शिक्षा प्रणाली द्वारा मूल्य विकास के उपलक्ष्य में शैक्षिक क्षेत्र में जिन जिन प्रणालीयों का समय समय पर आधार लिया गया, उन सभी के परिणामों के अभ्यास के उपरांत इस नयी प्रणाली को विकसित किया गया है। यह शिक्षा प्रणाली एक आदर्श चिरस्थायी, तथा बहुपयोगी प्रणाली हो इसी प्रयास से सभी बिंदुओं पर विचारविमर्श कर कुछ ठोस निर्णय लिया गया है। वैयक्तिक विकास के साथ ही वैश्विक विकास का ध्येय सामने रखकर भारत को वैश्विक स्तर पर अपने आदर्शों तथा पारम्पारिक मूल्यों के आधार पर एक सर्वोत्तम राष्ट्र सिद्ध करने में यह शिक्षा प्रणाली निश्चित ही यशदायी सिद्ध होगी। भारतीय ज्ञान परंपरा के मूल तत्वों के आधार पर पुनः एक बार भारत को विश्वगुरु बनाने के प्रयास के साथ ही यह ज्ञान परंपरा व्यक्ति के वैयक्तिक विकास के साथ समाज की उन्नति का भी ध्येय रखती है।
मनुष्य के जीवन प्रवास में धर्म से मोक्ष की ओर उसे सफलतापूर्वक ले जाने के लिए भारतीय ज्ञान प्रणाली का विशेष उपयोग इस युग में भी संभव है। इसके लिए प्राचीन कालीन इस प्रणाली में हुए कालानुरूप परिवर्तन का विशेष अभ्यास करना इस ग्रंथ का मूल उद्देश्य है। यह परिवर्तन सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के होने की संभावना है। आधुनिक पीढ़ी को इन चुनौतियों से अवगत कराने के उपरांत परंपरा के जतन संवर्धन का उत्तरदायित्व वह सुयोग्य तरीके से निभाएगी यही विश्वास है।
इस प्रयास के पीछे केवल एक पुस्तक की निर्मिती करना यह उद्देश्य नहीं है। संगीत की परंपरा के विषय पर सैंकड़ो किताबें पहले ही उपलब्ध है, परन्तु इसके भी आगे जाकर इस क्षेत्र में होनेवाले नवाचारों के बारे में जानकर, परंपरा में होनेवाले अवरोध अथवा सहयोग से नयी पीढ़ी को अवगत करना, जिससे परंपरा को बरकरार रखने की दिशा में वे सफल प्रयास कर पाएं इस महत्वपूर्ण उद्देश्य से इस ग्रन्थ की निर्मिती हुई है।
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