ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि यह रचना आरम्भ करने की तिथि थी। उस समय शरत् बाबू जुबली कालेजिएट स्कूल, भागलपुर में दसवीं कक्षा के छात्र थे, और वय थी केवल 17 वर्ष ।
पाण्डुलिपि के अंतिम पृष्ठ पर तारीख पड़ी है- 3 अगस्त, 1900। बंगला के प्रख्यात कथाकार सौरीन्द्रमोहन मुखोपाध्याय ने अपनी पुस्तक 'शरत्चन्द्रेर जीवन-रहस्य' में लिखा है :
"मुझे याद है, उन दिनों वे 'कोरेल' लिखने में व्यस्त थे। यह रचना बिलकुल गुम हो गई थी। कहीं छपी देखी नहीं गई। लिखते समय कहा करते थे, 'विलायती पात्नों को लेकर कथा लिख रहा हूं...। यह ट्रान्सलेशन नहीं, ओरिजिनल है।"
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