भगवत्पाद शंकाराचार्य की कृपा से हम लोग वेदांत को सरल ढंग से समझने में सफल हुए हैं।
भगवत्पाद के भाष्य से पूर्व उपनिषदों, गीता और अन्यान्य ग्रंथों पर कोई प्रामाणिक टीका उपलब्ध नहीं थी। शंकराचार्य जी ने अवतीर्ण होकर वेदों की 'विविक्षा' अर्थात् 'वक्तुं इच्छा इति विविक्षा' अर्थात् वेद क्या कहना चाह रहे हैं, उन पर भाष्य किये और उनको समझाने के लिए छोटे-छोटे ग्रंथों की रचना भी की, कि यदि आप उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र नहीं पढ़ पा रहे हैं, तो कोई बात नहीं। आप तत्व बोध, आत्म बोध पढ़ें और फिर जब आप उपनिषद् पढ़ने जाएँगे तो आप को लगेगा कि उपनिषद् के भावार्थ तो हम पढ़ चुके हैं। भगवान शंकराचार्य ने अत्यन्त सहज और सरल किन्तु प्रसन्न एवं गंभीर भाव से प्रत्येक सिद्धांत को अपने लघु कलेवर के ग्रंथों में लिखा है। अब कर्मयोग, निष्काम कर्म, सत्कर्म की बात लें तो शंकराचार्य जी ने बारह श्लोकों में इतना सुंदर कर्मयोग का विवेचन किया है और कर्म के होने वाले बंधन से छुटकारा पाने के लिए उत्तम साधन के रूप में स्तुति स्वरूप प्रार्थना की व्यवस्था प्रदान की है कि 'क्षंतव्यो मेऽपराधः शिव शिव शिव भोः श्रीमहादेव शम्भो ।
अब कई बार विचार आता है कि मंत्र तो मात्र वेद मंत्रों को कहा जाता है तो आचार्यजन इन छोटे-छोटे ग्रंथों में इन श्लोकों को वेद मंत्र क्यों कहते हैं? मंत्र की परिभाषा है-'मननात् त्रायते इति मंत्रः' अर्थात् जिसके मनन करने से मन को शांति मिले उसे मंत्र कहते हैं तथा जिन शब्द राशियों को ऋषियों ने अपने ध्यान की उच्च अवस्था में अनुभव कर मनुष्यों के लिए संकलित कर अर्थात् उसको देख कर अभिव्यक्त कर दिया हो, उसे मंत्र की संज्ञा दी जाती है, इसीलिए कहा गया है मंत्र द्रष्टारः ऋष्यः। मन को शांति मिले या हमारे जीवन की परेशानियों, मानसिक क्लेशों का विनाश हो, उस हर एक शब्दराशि को, श्लोक को, पंक्ति को आप मंत्र के रूप में अर्थात् जीवन शक्ति बोल सकते हैं। इसलिए 'शिवअपराध क्षमापन स्तोत्र' की हर एक पंक्ति मनन करने के बाद भगवान के चरणों की ओर ले जाती है और हमें इस बात का भरोसा दिलाती है कि मेरे जीवन में किये गये प्रत्येक अपराधों, पापकर्म को क्षमाकर पुनः ऐसे कर्म में प्रवृत्त ना होने का प्रबल संकल्प भी पैदा करती है तथा अपने निज शिवस्वरूप को जानने का एक अवसर प्रदान करती है कि मेरा जो वास्तविक स्वरूप है वो नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त आनंद स्वरूप शिव के जैसा अनंत, व्यापक, चिन्मय, निर्विकार, निष्पाप, निरंजन है। मैं वो चिन्मय सत्ता हूँ, जो चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् के उच्च धरातल पर स्वयं को अनुभव करता हूँ। इस अपने निजस्वरूप के बोध के अभाव के कारण अभी तक न जाने कितने व्यर्थ कर्मों में उलझा रहा और जीवन के बहुमूल्य अवसर को गँवा रहा था तथा देवदुर्लभ इस मानव शरीर को पाकर भी नाना विषय भोगों में फँसा हुआ था और समय के रूप में अपनी आयु ही व्यर्थ कर रहा था। भगवत्पाद अपने भजगोविदं ग्रंथ में इंगित करते हैं कि कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदति न मुन्च्याशावायुः समय के साथ हमारी आयु भी व्यतीत हो रही है, इसलिए ऐसे दुर्लभ अवसर पाकर प्रत्येक मनुष्य को अपने निजबोध के मार्ग पर अग्रसर होकर कल्याण की भावना से अध्यात्म पथ का अनुसरण करना चाहिए, क्योंकिः-
कबहुँक करि करूना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही।
(श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड)
ततः सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते । (कठोपनिषद्)
शरीर के छूटने से पूर्व ही जो उस तत्व को जान लेता है, वह बंधन से छूट जाता है नहीं तो वह अनेक कल्पों तक अनेक लोकों में नाना प्रकार के शरीर धारण करता रहता है।
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