पुस्तक परिचय
'बीसलदेव रास' हिन्दी साहित्य का गौरव ग्रंथ है। इस ग्रंथ की भाषा पर अभी तक कोई व्यवस्थित अध्ययन नहीं हुआ है। इस संबंध में प्रायः फुटकल विचार ही सामने आये हैं। एतद् संदर्भ में श्री सत्यजीवन वर्मा, डॉ० तारकनाथ अग्रवाल, डॉ० उदयनारायण तिवारी, डॉ० माताप्रसाद गुप्त तथा श्री अगरचंद नाहटा के नाम उल्लेखनीय है। उक्त मनीषियों के 'बीसलदेव रास' की भाषा के संबंध में व्यक्त विचार संकेतक मात्र हैं। प्रस्तुत कृति में बीसलदेव रास की भाषा का व्यवस्थित सर्वामंपूर्ण तथा शोध परक विवेचन किया गया है।
डॉ० कटारिया ने इस भाषा वैज्ञानिक ग्रंथ में 'बिसलदेव रास' की विविध पाठ परंपराओं, ध्वनियों, रुप-योजना शब्द-समूह आदि का विशद् एव शास्त्रीय दृष्टि से विवेचन किया है।
लेखक परिचय
डॉ० छीतरमल कष्टारिया एम. ए. (हिन्दी) पी-एच. डी.
जन्म: 15 जुलाई 1947 बिशनपुरा चारर्णवास (जयपुर) के एक संघर्षशील परिवार में। विगत 21 वर्षों से राजस्थान के विभिन्न राजकीय महाविद्यालयों में अध्यापन तथा शोष-निर्देशन । दूरदर्शन तथा आकाशवाणी से साहित्यिक वार्तायें प्रसारित ।
प्रकाशित रचनाएँ : निबंध सरोवर (संपादित) 'राजस्थानी भाषा का उद्भव व विकास' पर कार्य जारी । संर्शत: व्याख्याता, श्री कल्याण राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सीकर (राज०)
भूमिका
हिन्दी साहित्य का इतिहास वीरगाथा काल की अपभ्रंश भाषा की उन कालजयी कृतियों से प्रारम्भ होता है जो अधिकांशतः राजस्थान के वीर नायकों की यशोगाथा पर आधारित है, इस दृष्टि से राजस्थान इस गौरव का धनी है। हिन्दी भाया के उद्विकास के बारे में भी समस्त भायाशास्त्रियों ने निविवाद रूप से यह माना है कि अपभ्रंश से ही हिन्दी का उद्भव हुथा है। जयपुर के विद्वान पं चन्द्रघर शर्मा गुलेरी ने भी अपनी कृति 'पुरानी हिन्दी' में सप्रमाण विवेचन किया है कि किस प्रकार अपभ्रंश अवहटठ आदि स्थितियों से गुजरते हुए हिन्दी का खड़ी बोली रूप विकसित हुआ । इस दृष्टि से चन्द बरदाई के पृथ्वीराज रासो, नरपति नाल्ह के बीसलदेव रासो, जोधराज के हम्मीर रासो दलपत विजय के सुम्माण राम्रो आदि का भाषा शास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से भी बहुत महत्त्व है। अद्दहमासा (अब्दुर्रहमान) के 'संदेश रासक" पर भी आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे विद्वानां ने बहुत कार्य किया है। नरपति नाल्ह का बीसलदेव रासो इस दृष्टि से भी महत्त्व-पूर्ण है कि इसमें बीरगाथा के अतिरिक्त श्रृंगारिक कथा वस्तु भी है, मेघदूत की तरह पठाया गया प्रेम संदेश भी विरह की करुणा भी। यही कारण है कि हिन्दी साहित्य के प्रत्येक इतिहासकार ने इस काव्य को महत्त्वपूर्ण बनाकर इसके विविध पक्षों पर अपने अभिमत दिये हैं तथा इसके काल निर्धारण का प्रयत्न किया है। पं. गौरी शंकर होराचन्द ओझा, पं. रामचन्द्र शुक्ल विद्वानों से लेकर डॉ. मोतीलाल मोनारिया, डॉ. माता प्रसाद गुप्त, डॉ. तारकनाथ अग्रवाल आदि विद्वानों ने इसकी भाषा और लेखन काल के चारे में विभिन्न मत व्यक्त किये हैं।
पुरोवाक्
मानव-मेघा-प्रसूत अनेक आविष्कारों में वाणी अथवा वाक् शक्ति का आविष्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वैदिक युग से ही मंत्रद्रष्टा ऋषियों एवं साहित्य मनीपियों ने वास्तत्व की विभिन्न प्रकार से व्याख्या करते हुए उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। वह (वाणी) राष्ट्र निर्मात्री शक्ति है। वह वसुतत्वों का संगम एवं समन्वय करने वाली है। वाणी विज्ञानमय है, प्रथमोपास्य है एतदर्थ भाषाश स्त्रियों ने उसे नाना रूप प्रदान कर नाना प्रकार से प्रस्तुति के साथ विभिन्न स्थानों पर शक्ति सम्पन्न करते हुए प्रतिस्थापित किया है। महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में अध्ययन तथा अध्यापन की अवधि में मेरा सम्पर्क भाषा विज्ञान के शिक्षकों से अधिक रहा है। इधर जब से मुझे स्नातकोत्तर कक्षाओं को हिन्दी पढ़ाने का सुअवसर मिला मेरा ध्यान भाषा विज्ञान के प्रति आकर्षित होता चला गया। हिन्दी भाषा के कतिपय प्रमुख कवियों, महत्वपूर्ण कृतियों एवं बोलियों से सम्बन्धित भाषा वैज्ञानिक शोध कार्यों को देखकर मेरे मन में भी प्रेरणा हुई कि मैं भी इस क्षेत्र में कुछ कार्य करू। इस सम्बन्ध में सर्वाधिक प्रेरणा एवं प्रोत्साहन मेरे श्रद्धेय गुरुवर डॉ० जगदीश प्रसाद जी कौशिक से मिला जिसके परिणाम स्वरूप में यह शोध प्रवन्ध प्रस्तुत करने में सफल हो सका ।