हमारे युग के एक मूर्धन्य साहित्यकार धर्मवीर भारती के सृजन पर केन्द्रित यह पुस्तक उनके समग्र कृतित्व का गम्भीर लेखाजोखा प्रस्तुत करती है। दूसरे शब्दों में, यह धर्मवीर भारती के लेखन-कर्म को समझने और परखने की दिशा में एक ज़रूरी और बौद्धिक सहकार है।
इसमें वरिष्ठ और युवा हिन्दी लेखकों-आलोचकों द्वारा सम्पूर्ण भारती-साहित्य - कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास, निबन्ध, आलोचना आदि के अर्थपूर्ण और विचारोत्तेजक विश्लेषण के साथ ही, भारती जी की अद्वितीय कला-दृष्टि और उसके संश्लिष्ट प्रभावों की सम्प्रेषणीयता का भी सूक्ष्म विवेचन है। यह कहना गलत नहीं होगा कि 'धर्मवीर भारती की साहित्य-साधना' पूर्वाग्रहों और उलझावों से बचते हुए भारती के यशस्वी कृतित्व और उनके पाठकों के बीच सार्थक संवाद-सेतु बनाने की सही समय पर एक महत्त्वपूर्ण कोशिश है।
डॉ. भारती के जीवनकाल में ही उनके लिखे साहित्य पर अनेक शोध-प्रबन्ध प्रकाशित हुए। लगभग प्रतिवर्ष ही किसी-न-किसी विश्वविद्यालय के छात्र शोध-कार्य में रत रहते थे। इस सिलसिले में जब-तब अनेक प्रश्नों को लिये तमाम पत्र आते रहते थे। जहाँ तक सम्भव हो पाता, मैं उन विद्यार्थियों की जिज्ञासाओं का यथोचित समाधान कर दिया करती थी। कभी-कभी अधिक सार्थक और गम्भीर प्रश्नों के जवाब स्वयं भारती जी भी समय निकालकर दे दिया करते थे। किन्तु उनके देहावसान के बाद तो देश के कोने-कोने से इतने अधिक प्रश्न पूछते हुए पत्र आने लगे कि मुझे लगा, इस दिशा में कुछ ठोस काम करना आवश्यक है।
इस प्रकार, योजना बनी कि एक ऐसा संकलन तैयार किया जाए जिसमें भारती जी के बहुआयामी साहित्य की समग्र रूप से विस्तृत जानकारी मिले; और ऐसे समीक्षात्मक लेख शामिल किये जाएँ जिनसे न केवल पाठकों के प्रश्नों के समाधान मिलें बल्कि उन्हें अपनी मौलिक सोच का निर्माण करने में सहायता भी मिले। इसी दृष्टि से 'धर्मवीर भारती की साहित्य-साधना' में कुछ ऐसे लेखों को भी शामिल किया गया है जिनमें भारती जी के साहित्य के किसी पक्ष की कटु आलोचना की गयी है। उन बातों से सहमत न होते हुए भी उन्हें इसीलिए लिया है कि पाठक एक ही बिन्दु पर कई दृष्टियों से विचार कर सकें। 'परिशिष्ट' खण्ड में भारती जी के लिखे कुछ ऐसे निबन्ध संकलित हैं, जो उनकी साहित्य-साधना को समझने में सहायक हो सकते हैं।
पिछले पचास वर्षों में छपी सम्बन्धित पुस्तकें और पत्रिकाएँ जब खोज-खोजकर पढ़नी शुरू कीं तो भारती जी से सम्बन्धित जानकारियाँ यत्र-तत्र बिखरी हुई इतनी विपुल संख्या में मिलीं कि सार-सार ग्रहण करने और थोथा-थोथा उड़ा देने में बहुत समय लग गया। जो पक्ष कुछ अधूरा छूटा-सा लगा उस पर सम्बन्धित विद्वानों से लिखने का आग्रह किया। मेरी विनती स्वीकार करके उन्होंने जो लेख लिखकर दिये हैं, यह मुझ अकिंचन की झोली में डाले गये अनमोल रत्न हैं। कृतज्ञ हूँ। स्वर्गीय रामविलास शर्मा जी का जो लेख पुस्तक में है, उसे लिखने के बाद उन्होंने मुझसे कहा था- "फ़िलहाल यह लेख ले लीजिए। अगली बार जब आप दिल्ली आयें तो मैं बोलता जाऊँगा, आप लिखती जाइएगा। अब हाथ काँपते हैं इसलिए स्वयं नहीं लिख पाऊँगा। पर मुझे भारती जी के बारे में बहुत कुछ कहना है। वक़्त आ गया है कि वह जरूर कहा जाना चाहिए। हिन्दी को उनका योगदान बहुत बड़ा था।" मेरा और शायद आपका भी दुर्भाग्य ही है कि वह 'बहुत कुछ' कहनेवाला महान् विचारक संसार से विदा हो गया। अन्यथा वह लेख इस पुस्तक की कितनी बड़ी उपलब्धि होता इसका आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं। डॉ. सी. एल. प्रभात भारती जी के देहावसान की पीड़ा को झेल नहीं पा रहे थे। झेलने के प्रयास में ही उन्होंने जो लेख लिखा, उसे उनकी स्मृति को प्रणाम करते हुए मैंने इस पुस्तक में शामिल किया है। वे इसे छपा हुआ न देख सके, इसका मुझे पश्चात्ताप रहेगा।
अपने लेखों को पुस्तक में शामिल कर लेने के लिए सभी लेखक-मित्रों ने कृपापूर्वक जिस तरह सहर्ष अनुमति दी, उसके लिए मैं अत्यन्त आभारी हूँ। 'धन्यवाद' को शब्दों में व्यक्त करके जो उऋण हो जाने का भाव आ जाता है, उसका उपयोग करने का मन नहीं होता। अस्तु...
भारतीय ज्ञानपीठ ने इस पुस्तक का प्रकाशन बड़े मनोयोग से किया है, इसके लिए मैं ज्ञानपीठ की कृतज्ञ हूँ। लेखों को बार-बार पढ़ने, सँवारने तथा तरतीब देने में भाई पद्मधर त्रिपाठी ने जिस तरह परिश्रम किया है, उसमें भारती जी के लिखे शब्दों के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा और ममता का योगदान है। आभारी हूँ।
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