यह किताब साहित्यिक कृतियों के सिनेमाई रुपांतरण के सैद्धांतिक पक्षों पर प्रकाश डालती है, साथ ही सिनेमा के उन सब पहलुओं का भी सोदाहरण परिचय देती है जिन्हें फ़िल्म को समझने के लिए जानना ज़रुरी है।
लेखक ने हिंदी और अन्य भाषाओं की कई साहित्यिक कृतियों और उन पर बनी फ़िल्मों का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए रुपांतरण प्रक्रिया की चुनौतियों पर विचार किया है। पुस्तक में भारतीय फ़िल्मों के तकनीकी विकास की भी एक झलक है। लेखक ने बताया है कि किस तरह कैमरे की गुणवत्ता, साउंड रिकॉर्डिंग और एडिटिंग के साथ-साथ संवाद अदायगी और गीतों की प्रस्तुति में बदलाव आया। इसमें अनेक क्लासिक फ़िल्मों की निर्माण प्रक्रिया और उससे जुड़े रोचक प्रसंग हैं।
पिछले एक-दो दशकों में प्रदर्शित कई हिंदी फिल्मों के ज़रिए फ़िल्म उद्योग के चरित्र की पड़ताल करने की भी कोशिश की गई है। विमल रॉय, सत्यजित राय और मणि कौल जैसे दिग्गज निर्देशकों की विशिष्टताओं पर रोशनी डाली गई है और प्रेमचंद के संक्षिप्त फ़िल्मी सफ़र की भी चर्चा है।
जवरीमल्ल पारख साहित्य, सिनेमा और मीडिया पर नियमित लेखन करते रहे हैं। अब तक उनकी पंद्रह पुस्तके प्रकाशित है। उन्होंने टेलीविजन के लिए शैक्षिक और कथात्मक पटकथा लेखन भी किया है। वे भारतीय भाषा परिषद द्वारा प्रकाशित हिंदी साहित्य ज्ञानकोश (सात खंड) के संपादक मंडल के सदस्य रह चुके है। उन्हें प्रो. कुंवरपाल सिंह स्मृति सम्मान, घासीराम वर्मा साहित्य पुरस्कार, राजस्थान साहित्य अकादमी का विशिष्ट साहित्यकार सम्मान प्राप्त हुए हैं। वर्ष 2017 में इंदिरा गांथी मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली से प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्ति के बाद अब स्वतंत्र लेखन।
सिनेमा पर लेखन के क्रम में कुछ ऐसी फ़िल्मों पर मैंने विस्तृत विश्लेषणात्मक निबंध लिखे हैं जो साहित्यिक कृतियों को आधार बनाकर निर्मित की गयी थीं। हिंदी में साहित्य और सिनेमा के संबंधों पर कई पुस्तकें पहले से ही उपलब्य हैं। कुछ शोधार्थियों ने ऐसी फ़िल्मों पर भी काम किया है जो किसी न किसी साहित्यिक कृति पर आधारित हैं। इन सबके बावजूद मैंने महसूस किया कि साहित्य और सिनेमा के अंतःसंबंधों की पड़ताल करते हुए अब भी बहुत कुछ लिखा जा सकता है। केवल साहित्य और सिनेमा नहीं बल्कि साहित्य और सिनेमा के संबंधों की पड़ताल करते हुए उनके कला पक्ष का अध्ययन करना भी आवश्यक है। इस क्रम में विचार करते हुए मुझे यह ज़रूरी लगा कि साहित्यिक कृति पर बनी फ़िल्मों का विवेचन ही पर्याप्त नहीं है बल्कि उनके सैद्धांतिक और कलात्मक पक्षों पर विचार करना भी आवश्यक है।
साहित्य के विद्यार्थी जो सिनेमा पर अपना शोध कार्य करते हैं या आलोचनात्मक लेखन करते हैं, वे प्रायः सिनेमा के कला पक्ष से अनभिज्ञ होते हैं या उनकी जानकारी बहुत ही सीमित होती है। इस वजह से वे फ़िल्म को भी साहित्यिक कृति की तरह पढ़ते हैं और साहित्यिक कृति की तरह उनकी समीक्षा करते हैं। उसमें भी मुख्य बल कथानक और कथावस्तु पर होता है। साहित्यिक रचना के कथानक की तुलना फ़िल्म के कथानक से करते हुए उनमें जो अंतर उन्हें नज़र आता है, उसे रेखांकित करना वे पर्याप्त समझते हैं। इसी तरह वे कथावस्तु के बाद पात्रों का चरिन-चिलण करते हैं, बिल्कुल उसी तरह जिस तरह कहानी, उपन्यास या नाटक के पालों का चरित-चित्रण किया जाता है। यहां कहने का यह तात्पर्य नहीं है कि सिनेमा के विवेचन में कथावस्तु और पात्नों का चरित्न-चित्रण करना आवश्यक नहीं है। आवश्यकता है, लेकिन फ़िल्म में पात्तों का व्यक्तित्व जो उभर कर आता है वह कथावस्तु और संवादों से ही नहीं आता बल्कि उनमें सिनेमाई भाषा के और भी कई पक्षों की भूमिका होती है जिनको जानना और समझना आवश्यक होता है और उसके बाद ही हम चरित्र की सूक्ष्मताओं तक पहुंच पाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि सिनेमाई रूपांतरण को केवल साहित्य के आलोचनात्मक उपकरणों से विश्लेषित करना पर्याप्त नहीं है। बल्कि एक ऐसी फ़िल्म जो साहित्यिक कृति को आधार बनाकर निर्मित हुई है, का विश्लेषण साहित्यिक और सिनेमाई उपकरणों का साथ-साथ उपयोग करते हुए किया जाना ज़रूरी है। इस बात को ध्यान में रखते हुए मुझे यह ज़रूरी लगा कि एक ऐसी किताब भी हिंदी में होनी चाहिए जो साहित्यिक कृति के सिनेमाई रूपांतरण के सैद्धांतिक पक्षों पर प्रकाश डाले। साथ ही साथ सिनेमा के उन सब पक्षों का भी सोदाहरण परिचय दे जिन्हें फ़िल्म को समझने के लिए जानना जरूरी है।
स्पष्ट ही यह काम वही बेहतर ढंग से कर सकता है जिसे सिनेमा निर्माण का अनुभव हो। मेरा ऐसा कोई अनुभव नहीं है, लेकिन इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अध्यापन करते हुए शैक्षिक वीडियो कार्यक्रम के लिए पटकथा लिखने और उस पटकथा पर बनने वाले वीडियो कार्यक्रम के प्रत्येक चरण से जुड़े रहने का लाभ यह हुआ कि बहुत सी बातों को समझने में मदद मिली है। इसी दौरान दूरदर्शन, एनसीईआरटी और केंद्रीय विद्यालय संगठन के लिए ऐसे कथात्मक कार्यक्रमों की पटकथा लिखने और उन पर बने कार्यक्रमों के संपादन तक के चरणों को नज़दीक से देखने का लाभ यह हुआ कि सिनेमा निर्माण का कुछ हद तक व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त हुआ। इस ज्ञान को समृद्ध उन पुस्तकों ने किया जो सिनेमा के सैद्धांतिक पक्षों पर लिखी गयी थीं और जिसका विशाल भंडार अंग्रेजी में उपलब्ध है। 1998 में पुणे स्थित फ़िल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा आयोजित चार सप्ताह के फ़िल्म एप्रिशिएसन कार्यक्रम में भाग लेने ने इस ज्ञान को और विस्तृत करने में अहम भूमिका निभायी। इस तरह कुछ हद तक मैं इस कार्य को करने के लिए ज़रूरी ज्ञान हासिल करने में सक्षम हो सका और ऐसी पुस्तक लिखने के लिए अपने को प्रेरित कर सका।
साहित्य, कला और सिनेमा के अंतःसंबंधों की पड़ताल करने से संबंधित यह कार्य दो अलग-अलग पुस्तकों में करने का विचार है। पहली पुस्तक में इसके सैद्धांतिक पक्षों की फ़िल्मों के उदाहरणों द्वारा जानकारी दी गयी है। साथ ही साथ वैश्विक, भारतीय और हिंदी सिनेमा की उन प्रमुख कृतियों का भी संक्षिप्त लेखा-जोखा पेश किया गया है जिन पर दुनिया की विभिन्न भाषाओं में फ़िल्में बनी हैं।
ल्यूमिए बंधुओं ने गतिशील दृश्यों को दिखाने के लिए जिन विषयों का चयन किया, उनमें कहानी के तत्त्व मौजूद थे और जल्दी ही नये फ़िल्मकारों ने इस बात को पहचान लिया कि सिनेमा के माध्यम से कहानी को दिखाया जा सकता है जो कहानी कहे जाने, सुने जाने या पढ़े जाने से कम प्रभावशाली नहीं होगी। जिस कहानी को शब्दों के माध्यम से पढ़ते हैं उन्हें साक्षात अपने सामने घटित होते हुए देखना कम चमत्कारपूर्ण नहीं था। कहानियां मनुष्य की जय-यात्रा में हमेशा उसकी हमसफ़र रही हैं। मनुष्य अपनी कल्पना के घोड़े जितनी दूर तक और जितनी तेज़ गति से दौड़ा सकता था, दौड़ाकर वह कहानियां गढ़ता रहा है, रचता रहा है। कितनी भी काल्पनिक कहानी क्यों न हो उसमें मानव यथार्थ की प्रतिछाया अवश्य होती है। घटनाओं, भावनाओं और विचारों का मूल कहीं न कहीं मनुष्य के अपने अनुभव होते हैं। वह कहानी चाहे देवी-देवताओं के माध्यम से कहे या पशु-पक्षियों के माध्यम से। सिनेमा से पहले तक कहानी भाषा के माध्यम से ही कही और सुनी जाती रही है। भाषा केवल भावों और विचारों को ही व्यक्त नहीं करती वह शब्दों से हमारे सामने चिल भी खड़ा करती है, स्थिर चित्र ही नहीं गतिशील चित्र भी। और जहां ऐसा नहीं होता है वहां भी शब्दों में रची गयी कहानियों को पढ़ते हुए जो कुछ घटित हो रहा होता है, पाठक के मानस में गतिशील चिलों की तरह उभर आता होगा। उदाहरण के लिए, प्रेमचंद की कहानी दो बैलों की कथा (जिस पर हीरा-मोती नाम की फ़िल्म बनी थी) का यह अंश देखिए :
संध्या समय दोनों बैल अपने नये स्थान पर पहुंचे। दिन-भर के भूखे थे, लेकिन जब नांद में लगाए गए, तो एक ने भी उसमें मुंह न डाला। दिल भारी हो रहा था। जिसे उन्होंने अपना घर समझ रखा था, वह आज उनसे छूट गया था। यह नया घर, नया गांव, नये आदमी, सब उन्हें बेगानों से लगते थे।
दोनों ने अपनी मूक भाषा में सलाह की, एक दूसरे को कनखियों से देखा और लेट गये। जब गांव में सोता पड़ गया, तो दोनों ने जोर मारकर पगहे तुड़ा डाले और घर की तरफ चले। पगहे बहुत मजबूत थे। अनुमान न हो सकता था कि कोई बैल उन्हें तोड़ सकेगा, पर इन दोनों में इस समय दूनी शक्ति आ गयी थी। एक-एक झटके में रस्सियां टूट गईं।
जब हम कहानी पढ़ते हैं तब जो कहा जा रहा है उसका अर्थ शब्दों और वाक्यों से ही ग्रहण नहीं करते, उन शब्दों और वाक्यों के द्वारा जो क्रियाएं घटित होती हुई हमारे सामने आती हैं, उनकी कल्पना भी हम करते हैं। अब पहले परिच्छेद के पहले वाक्य को ही देखें 'संध्या समय दोनों बैल अपने नये स्थान पर पहुंचे। वाक्य बहुत सरल है लेकिन क्रिया की दृष्टि से इस सरल वाक्य में तीन बातें कही गयी हैं। एक दोनों बैल नये स्थान पर पहुंचे। दो - जब वे पहुंचे तब संध्या का समय था। तीन इसका अर्थ यह है कि दोनों बैल कहीं और थे लेकिन अब वे नये स्थान पर आ गये हैं या लाये गये हैं। जब कहानी पढ़ रहे होते हैं तब हमारे सामने जो कहा जा रहा है उसका अर्थ ही हमारे सामने नहीं आ रहा है वरन साथ-साथ गतिशील चिल भी हमारे मानस में बनता जा रहा है। बहुत स्पष्ट नहीं लेकिन चित तो बन ही रहा है। जैसे संध्या का चित, दो बैल एक साथ और किसी नये स्थान की कल्पना।
हमें नहीं मालूम वह संध्या कैसी होगी, बैल कैसे दिखते होंगे, उनकी उम्र क्या होगी और वह नयी जगह कैसी होगी। आगे कहानी बताती है कि दोनों दिन भर के भूखे थे यानी पहले वाले स्थान से इस नये स्थान पर आने में पूरा दिन लगा है। स्पष्ट है कि वे थके हुए भी हैं और भूखे भी हैं। उस नयी जगह पर एक नांद है जिसके आगे उन्हें छोड़ दिया गया। स्प्ष्ट ही उस नांद में दोनों बैलों के खाने के लिए भोजन है और उन्हें भूख भी लगी है। लेकिन वे नहीं खा रहे हैं। क्यों? प्रेमचंद आगे स्पष्ट करते हैं कि उनका 'दिल 'भारी हो रहा था। जिसे उन्होंने अपना घर समझ रखा था, वह आज उनसे छूट गया था। यह नया घर, नया गांव, नये आदमी, सब उन्हें बेगानों से लगते थे'। यहां प्रेमचंद जो लिख रहे हैं वह यह मानकर लिख रहे हैं कि दोनों बैलों को नया गांव, नया घर, नये लोग सब बेगाने लग रहे हैं।
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