मूकं करोति वाचालं पङ्ग लङ्घयते गिरिम् । यत्कृया तमहं वन्दे परमानन्द-माधवम् ।। प्रभुकी असीम कृपामयी इच्छा-शक्ति हो जगन्नाटककी सूत्रधात्री है। यही प्रत्येक प्राणीको विभिन्न व्यापारोंमें प्रेरित कर रही है। कैसी अद्भुत है उनकी वह सोलाशक्ति। करती सब कुछ वही है। किन्तु बेचारा प्राणी अपनेको ही कर्ता मानकर व्यर्थ कर्म-बन्धन में बंध जाता है। और स्वयं सर्वथा निरीह होने पर भी व्यर्थ अभिमान और दीनताका आरोप अपने पर कर लेता है। कैसी दयनीय है उसकी यह बिडम्बना । प्रभुकी उस लीलाशक्तिका प्रसाद ही है यह प्रस्तुत रचना । यों तो सर्वत्र सब कुछ उसीका लीला-लास्य है। परन्तु इसमें तो स्पष्ट ही उसको स्फूति जान पड़ी। यहाँ तो मूकको वाचाल करनेकी बात स्पष्ट हो चरितार्थ हो गयी। इन पंक्तियोंका लेखक न भक्त है, न कवि । पचास वर्षसे भी अधिक हुए अपने विद्यार्थी जीवनमें इसे कुछ तुकबन्दी करने-का स्वभाव था। उस समय भावी जोवनमें कवि बननेका उत्साह भी था। परन्तु फिर धीरे-धीरे वह रुचि और उत्साह शिथिल पड़ते गये और अब प्रायः पेतीस वर्षसे तो इसने अपने अनुवादित ग्रन्थोंके मंगलाचरणसे एक दो श्लोक या दोहा लिखनेके सिवा और कोई कविता नहीं लिखी । इसे न कविता लिखनेकी रुचि थी, न पढ़नेकी । आधुनिक छायावादी कविता तो समझनेकी भी क्षमता नहीं है। इबर कुछ वर्षोंसे यह कभी-कभी "मेरो मन हुमकि-हुकि रह जाय" इस पंक्तिको गुनगुनाया करता था। पता नहीं कबसे इसे गुनगुनाना भारम्भ हुआ । गत वर्ष सा० ११ जुलाई सन् १९७२ ६० को मनमें एक संकल्प हुआ कि इसके आधार पर एक पद लिालू। इस संक्रुपको पूति जिस पद द्वारा हुई वह इस पुस्तक का ७६ वाँ गीत है। उस दिनसे न ज्ञाने प्रभुको श्या इच्चदा हुई नित्य प्रति एक-एक पद प्रथित होने लगा। स्वयं ही प्रथम पंक्ति स्फुरित होती, उसकी पूतिका संकल्प होता और पद तैयार हो जाता। इस प्रकार प्रायः पन्द्रह दिन तक तो एक-एक पद लिखा गया और फिर काव्य भारती और भी मुखरित हो उठी। एक-एक दिनमें पाँच-पाँच छः-छः पद भी बनने लगे। मुझे क्या लिखना है, किस विषयमें लिखना है और कब लिखना है-यह में कभी नहीं सोचता था। जब जंसी प्रेरणा होती लिखने लगता और पद तैयार हो जाता। इस प्रकार अब तक सात सौसे ऊपर पद लिखे जा चुके हैं। यह क्रम कब तक चलेगा वे ही जानें। सबके केन्द्र-बिन्दु श्रीराषा-माधव युगल सरकार ही हैं। उनकी लीला, उनका विरह, उनकी रूप-माधुरी, उनकी महिमा और उनकी प्रोति ही इनमें गायी गयी है। इस प्रकार इस नगण्यसे वे अपनी चर्चा करा रहे हैं। क्यों करा रहे हैं, वे ही जानें। उन्होंने जो लिखाया है, एक निरीह लेखककी भाँति लिख दिया है। उन भावोंका शतांश भी इस जीवनमें चरितार्थ होता तो चित्तको बहुत सन्तोष मिलता। परन्तु जब वे लिखाते हैं तो लिखूँ भी क्यों नहीं ! कमसे कम उनका चिन्तन ही हो जाता है तथा मनको कुछ राह और राहत भी मिलती ही है। यह है इस रचनाकी जीवन-गाथा । लेखकमें इन भावोंकी ठीक छाया भी नहीं है। रीति-नीतिकी भी इसे कुछ जानकारी नहीं है। इस पुस्तकमें प्रयुक्त छन्दोंमें से दोहा और सबैयाको छोड़कर और किसी का नाम भी यह नहीं जानता। राग और तालके तो ककहरेसे भी इसका परिचय नहीं है।
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