जैन वीतरागी, जिनेन्द्र, तीर्थंकर के प्रति अपनी अटूट श्रद्धा एवं भक्ति अभिव्यक्त करते हैं। वे गुरुओं के भी महान् गुरु इन पूज्य अर्हन्त, केवली, सर्वज्ञ का ही सम्मान एवं पूजन-अर्चन करते हैं। ये ही इनके आराध्य हैं, इष्ट हैं। प्रत्येक युग में तीर्थकर 24 ही होते हैं। वर्तमान अवसर्पिणी में भी ऋषभदेव से लेकर महावीर स्वामी पर्यन्त 24 तीर्थकर हुए हैं। इनमें 20 वें तीर्थंकर भगवान् श्री मुनिसुव्रतनाथ जी हैं। तीर्थकर मुनिसुत्रतनाथ को इस धरा पर आविर्भूत हुए हजारों वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। ऐतिहासिक मान्यता है कि भगवान श्री मुनिसुव्रतनाथ महाराजाधिराज दशरथ के पुत्र श्रीराम के समसामयिक थे ।
1.3 वीं शताब्दी के जैन दार्शनिक विद्वान आचार्य महाकवि श्री अर्हदुदास ने तीर्थकर मुनिसुव्रत के जीवनवृत्त को लेकर 'मुनिसुव्रतकाव्य' का निवन्धन किया है। मेरे परम शिष्य दिनेश कुमार सिंहल ने इसी काव्य की समीक्षा कर 1977 ई. में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से एम. फिल्. की उपाधि प्राप्त की थी। हर्ष का विषय है कि उनका लघु शोघ प्रबन्ध मूलग्रन्थ और उसके अनुवाद सहित प्रकाशित हो रहा है।
डा. सिहंल ने ग्रन्धारम्भ में आचार्य अर्हदुदास के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की पाण्डित्यपूर्ण समीक्षा करते हुए जैन काव्यों के क्षेत्र में मुनिसुव्रतकाव्य की महत्ता एवं उपयोगिता पर विस्तृत प्रकाश डाला है। इसके बाद तीर्थकर परम्परा में काव्य के नायक भगवान् मुनिसुव्रतनाथ के चारित्रिक गुणों की विवेचना करते हुए काव्यगत तत्कालीन समाज व्यवस्था, प्रकृति चित्रण, काव्य की भाषा-शैली, रस एवं अलंकार संयोजना का पाण्डित्यपूर्ण वर्णन किया है।
डॉ. सिहंल बहुत ही लग्नशील, परिश्रमी एवं व्युत्पन्न विद्वान हैं। यह इनका द्वितीय प्रयास है । एतदर्थ में इसके लिए इन्हें हार्दिक साधुवाद देता हूं।
पूर्ण विश्वास है कि प्रकृत ग्रन्थ जैन साहित्य के उपासकों एवं अध्येताओं के ज्ञान में अवश्य वृद्धि करेगा और भावी शोधार्थियों का भी मार्ग दर्शन करेगा ।
मैं डॉ. दिनेश कुमार सिंहल के मंगलमय अभ्युदय की कामना करता हुआ आशा करता हूं कि भविष्य में भी डॉ. सिंहल के द्वारा ऐसे ही दुर्लभ ग्रन्थों का सम्पादन एवं अनुवाद प्रकाशित कराया जाएगा ।
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