सन् १९६८ में उमाशंकर जोशी को उनके काव्य-संग्रह 'निशीथ' पर मिलनेवाला ज्ञानपीठ पुरस्कार उनकी सर्जक प्रतिभा का राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृति का परिचायक है, हालाँकि वे गुजराती भाषा के युग-प्रवर्तक कवि के रूप में बहुत पहले देश के प्रमुख रचनाकारों में अपना स्थान बना चुके थे। उमाशंकर जोशी की प्रतिभा बहु-आयामी थी। वे कवि होने के साथ ही गुजराती के महत्त्वपूर्ण कहानीकार, एकांकीकार, उपन्यासकार और आलोचक भी थे। उनका प्रथम काव्य-संग्रह 'विश्वशांति' सन् १९३१ में प्रकाशित हुआ और अन्तिम काव्य-संग्रह 'सप्तपदी' सन् १९८१ में। मृत्यु (१९८८) के कुछ समय पूर्व तक वे काव्य-सृजन करते रहे। कुल मिलाकर पाँच-साढ़े पाँच दशकों तक उनकी काव्य-यात्रा अविराम गति से चलती रही। हमारे इतिहास का यह कालखण्ड अनेक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों का साक्षी रहा है। इस बीच साहित्य की दुनिया में भी अनेक हलचलें पैदा हुईं। आन्दोलनकारी परिवर्तनों ने कविता के भाव-बोध और रूप-विधान को गहरे रूप में प्रभावित किया। गाँधीवाद, प्रगतिवाद, आधुनिकतावाद-रूपवाद आदि ऐसे ही आंदोलन थे, जिनके कारण समय-समय पर गुजराती रचनाशीलता में गुणात्मक परिवर्तन घटित हुए । गाँधीवादी जीवन और कला-मूल्यों की स्वीकृति के साथ अपनी काव्य-यात्रा प्रारंभ करनेवाले उमाशंकर यदि आधुनिकतावाद तक आते-आते चुक नहीं गए तो इसलिए कि वे अपने युग के मानवीय प्रश्नों और समस्याओं से सतत रूप से जुड़े रहे, लेकिन एक रचनाकार के लिए जीवन की समस्याओं से जुड़ने, उनको रचना के स्तर पर ग्रहण करने की प्रक्रिया उतनी सपाट नहीं होती, क्योंकि हर समस्या कुछ नई वैचारिक गुत्थियाँ पैदा करती है, नए-पुराने मूल्यों, विश्वासों, मान्यताओं के झमेले खड़े होते हैं। इन्हें यूँ ही ऊपरी स्तर पर ग्रहण कर लेने से रचना महत्त्वपूर्ण नहीं बन जाती। जब तक कोई विचार, मान्यता या मूल्य रचनाकार की अनुभूति का अंग नहीं बन जाता, वह रचना में आकर भी न तो उसके माननीय पक्ष को समृद्ध करता है और न ही उसकी अभिव्यक्ति को कलात्मक या प्रभावशाली बना सकता है। वस्तुतः युग-चेतना का स्वरूप द्वन्द्वात्मक होता है। हमारा जीवन अनेक परस्पर विरोधी तत्त्वों का संघात है। उसके द्वन्द्वात्मक स्वरूप को पहचाने बिना जीवन के यथार्थ को उसकी समग्रता में ग्रहण कर पाना संभव नहीं होता। उमाशंकर जोशी में यथार्थ के द्वन्द्वात्मक स्वरूप की गहरी पहचान भी है और उसे अभिव्यक्त करने की रचनात्मक क्षमता भी। वे अपने लंबे रचनाकाल में 'महाप्रस्थान' के युधिष्ठिर की भाँति जीवन की आघातपूर्ण स्थितियों से आन्दोलित भी होते रहे और अपने चित्त की स्थिरता भी बनाए रख सके ।
महाप्रस्थान में कुल मिलाकर छोटे-बड़े सात 'महाप्रस्थान', 'युधिष्ठिर', 'अर्जुन-उर्वशी', 'कच', 'निमंत्रण', 'मंथरा' और 'भरत' संवाद-काव्य हैं। ये संवाद-काव्य जहाँ एक ओर अपने युग के साथ कवि के संवाद के परिचायक हैं, वहीं दूसरी ओर उनमें उसके अपने आत्म-संवाद का. स्वर भी सुनाई देता है। संवाद चाहे किसी अन्य के साथ हो या स्वयं अपने-आपके साथ, उसमें दूसरे की उपस्थिति अनिवार्य है। यह बात अलग है कि आत्म-संवाद में वह दूसरा अपने-आप में ही समाहित रहता है। 'महाप्रस्थान' की मंथरा को ख्याल भी नहीं है कि उसका स्वयं का आत्म एकीकृत न होकर अनेक परस्पर विरोधी रूपों में विभाजित है। इतना ही नहीं, उसका हर रूप दूसरे रूप से बहस करता है, उसे प्रताड़ित करता है। वस्तुतः यह प्रताड़ना आत्म-प्रताड़ना ही है और यह 'महाप्रस्थान' की प्रायः सभी रचनाओं में मौजूद है। 'महाप्रस्थान' जो ग्रंथ का भी शीर्षक है के सभी पात्र अपने पतन के लिए अपने-आपको ही दोषी मानते हैं। उस भाव से स्वयं धर्मराज युधिष्ठिर भी मुक्त नहीं हैं। उल्लेखनीय यह भी है कि 'महाप्रस्थान' के सभी संवाद-काव्यों के पात्र पराजय की पीड़ा से ग्रस्त हैं। यह पीड़ा युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव और द्रौपदी में तो है ही, स्वर्ग की अप्रतिम सुंदरी उर्वशी भी अर्जुन द्वारा अपने प्रणय-निवेदन को अस्वीकार किए जाने पर घोर पराजय का अनुभव करती है। 'कच' स्वर्ग के लिए संजीवनी विद्या तो ले आता है, लेकिन इसके लिए उसे जो मूल्य चुकाना पड़ता है, वह उस विद्या से इतना अधिक गुरुतर है कि उसकी उपलब्धि ही उसके अपराध-बोध में बदल जाती है। ' निमंत्रण' में तथागत भगवान बुद्ध ने आम्रपाली का आमंत्रण स्वीकार कर लिया है। लिच्छवियों द्वारा वह अपने इस परम सौभाग्य के लिए डराई, धमकाई और प्रताड़ित की जाती है। वे उससे तथागत के आमंत्रण का अधिकार ले लेना चाहते हैं, लेकिन वह अपने जीवन को चरितार्थता प्रदान करने वाले अवसर को अपने हाथों से खोना नहीं चाहती न प्रलोभन से और न ही भय से। लिच्छवी गण-राज्य के यौद्धा अपनी इस नैतिक पराजय के मूक साक्षी बनकर रह जाते हैं। 'मंथरा' में दुरित की विजय वस्तुतः मंथरा के भीतर के मानवीय रूप के पराजय का ही परिचायक है। 'भरत' में भरत और राम अपनी चेतना पर एक भीषण नैतिक दबाव के साथ अलग होते हैं। विषाद की एक गहरी छाया उनको आच्छादित किए रहती है, जैसे नियति के कुचक्र को समझकर भी वे उसको टाल पाने में अपने-आपको असमर्थ पाते हैं।
यह एक विडंबना ही है व्यक्ति के जीवन की भी और राष्ट्र की भी कि देश की स्वतंत्रता के बाद की, गुजराती साहित्य की यह महत्त्वपूर्ण रचना- 'महाप्रस्थान' विजय के उल्लास की नहीं, बल्कि पराजय की पीड़ा की व्यंजना करती है। इन नाट्य-कृतियों में भले ही प्रच्छन्न रूप से सही स्वतंत्रता के बाद के नैतिक विघटन की पीड़ा का एक अन्तर्वर्ती स्वर भी है। इस दृष्टि से दो गीत-नाट्य विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। 'महाप्रस्थान' के सभी पात्र 'महाप्रस्थान' और 'युधिष्ठिर' द्रौपदी सहित पाँचों पाण्डव स्वर्गारोहण को जाते हुए मार्ग में ही ढह जाते हैं। इनमें एक मात्र युधिष्ठिर ही एक अपवाद हैं। ऐसा क्यों होता है- युधिष्ठिर को छोड़कर अन्य सभी पात्र स्वर्ग के अधिकार से क्यों वंचित रह जाते हैं 'महाप्रस्थान' में इसी प्रश्न का उत्तर पाने का प्रयास है। व्यंजना के स्तर पर 'महाप्रस्थान' में देश के उन महारथियों के नैतिक पतन का संकेत है जो देश के स्वतंत्रता संग्राम में तो अपने अप्रतिम शौर्य और पराक्रम की प्रतीति कराते रहे, लेकिन स्वतंत्रता के बाद की बदली हुई स्थितियों में अपने धर्म और आचरण की सार्थकता प्रमाणित करने में असफल सिद्ध हुए। संभवतः इसका एक कारण यह भी था कि देश का स्वतंत्रता संग्राम एक सामूहिक अभियान था। वैयक्तिक दायित्व का भाव उसमें नहीं था, और अगर था भी तो बहुत कम । भीड़ द्वारा लगाए जानेवाले नारों में अपना स्वर मिलाकर उस अभियान में सहभागी बन जाना आसान था, लेकिन स्वतंत्रता के बाद दायित्व-बोध व्यक्तिगत हो गया। यानी अब व्यक्ति अपने कर्मों के लिए स्वयं उत्तरदायी था।
हिमालय पर आरोहण के समय जब द्रौपदी मार्ग में ढल जाती है तो भीम उसे उठाकर अपने कंधों पर रख लेना चाहता है, लेकिन द्रौपदी है कि उससे उठाए ही नहीं उठती । वस्तुस्थिति का बोध कराते हुए युधिष्ठिर भीम से कहते हैं -
भीम लाक्षागृह में तूने सहित जनेता चार बंधुओं को ढो सुरंग पार एक सौंस में की। वह भी समय था, किन्तु आज यह समय है और भार निज कर्म का उठाके चल पाए आज यह भी बहुत तेरे लिए ।
अर्जुन की स्थिति कुछ भिन्न है। उसकी आत्म-स्वीकृति में जैसे उसके स्वयं के जीवन की ही नहीं, बल्कि समग्र युग की विडंबनापूर्ण स्थिति का उद्घाटन हो जाता है। अर्जुन कहता है - स्वयंवर के समय मैंने अपने अन्तर्यामी कृष्ण से पूछा था यहाँ आप मेरे लिए किस रूप में सहायक बनेंगे ? अन्तर्यामी उत्तर देते हैं-
मैं तो अर्जुन केवल
इतना कर पाऊँगा, नीचे का नीर अविकंप रहे।
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