देवी सुरेश्वरी भगवति गंगे, त्रिभुवनतारिणी तरलतरंगे शंकरमौलिविहारणी विमले, मम मतिरास्तां तव पदकमले।"
आद्यगुरु शंकराचार्य जी द्वारा तीनों लोकों की तारणहार माँ गंगे की स्तुति में जीवनदायिनी माँ गंगा का पुण्य माहात्म्य सारगर्भित है। सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, वृक्षों, अग्नि, वायु की भाँति माँ गंगा जल के रूप में दृश्य देवी के रूप में पूजी जाती है। इसके बिना जीव-जगत की कल्पना निरर्थक है।
गंगा को माँ की पदवी प्राप्त है। सामान्य जनमानस के लिए गंगा एक नदी के रूप में प्रवाहमान जल का स्रोत है जो लगभग 2525 कि.मी. के अपने पथ पर करोड़ों लोगों की जीवन रेखा है। यह सत्य भी है, लेकिन मैंने माँ गंगा को इससे कहीं ऊपर आभास किया है। गंगा न केवल एक नदी है, बल्कि यह हमारी संस्कृति, सभ्यता और विचारों का अप्रतिम संगम है। गंगा के उद्गम गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक इसके तटों पर अनेक संस्कृति, सभ्यतायें जन्म लेती हैं। गंगा के सानिध्य में करोड़ों लोग अपने आध्यात्म की पुष्पांजलि अर्पित कर पुण्य कमाते हैं। गंगा तटों पर बसे शहर तीर्थ कहलाये जाते हैं और ये तीर्थ लाखों लोगों को आजीविका प्रदान कर उन्हें पोषित करता है।
यूँ तो हर भारतवासी माँ गंगा के महत्व को जानता, समझता है। अनेक ग्रन्थ, पुस्तकें पतित पावनी माँ गंगा के माहात्म्य पर लिखी गई हैं। माँ गंगा का अविरल प्रवाह कई गीतकारों की लेखनी में प्रवाहित हुआ है। लोगों ने अपने-अपने ढंग से माँ गंगा को अपनी आस्था सुमन अर्पित किये हैं।
'मैं गंगा बोल रही हूँ' खण्डकाव्य मेरे अंतस में लम्बे समय से गंगा के संघर्ष को अनुभूत करती उन भावनाओं की परिणिति है जिसे मैं शब्दों के रूप में सदैव के लिए जिन्दा करना चाहता था। गंगा का अविरल प्रवाह हम सबके लिए दृश्यमान है। हम सब ये जानते हैं कि इसकी एक-एक बूँद में अमृत बसा है। ये जीव जगत के कल्याण के लिए धरती पर अवतरित हुई और अनादिकाल से अब तक अहर्निश अपने कर्तव्य का निर्वहन करती आ रही है। इसे जीवनदायिनी सम्बोधित करना ही इस बात का प्रमाण है कि इसके बिना हम जीवन की कल्पना नहीं कर सकते। इसकी जलधाराओं के निर्मल प्रवाह में हमारा अस्तित्व सुरक्षित है।
किंतु इन सबके अतिरिक्त मैंने माँ गंगा को हमेशा उस तपस्विनी माँ की तरह देखा है जिसके जीवन का उद्देश्य उसकी संतान की रक्षा करना होता है। अपने संतति की रक्षा, सुरक्षा, पोषण परवरिश के लिए यदि कष्टों के कंटकों पर भी चलना पड़े तो एक माँ अपनी मधुर मुस्कान में कंटकों से उठती पीड़ा को छिपाये अनवरत अपने शिशु की निर्बाध परवरिश करती है। माँ गंगा भी तो यही कर रही है। इन्हीं बातों को सोचते-विचारते मेरे मन में आया कि 'गंगावतरण' उस कालखण्ड की कोई सामान्य घटना तो नहीं थी। सगर पुत्रों के तारण के लिए कई पीढ़ियों ने अपने प्राणों की आहुति देकर तपसाध्य किया। अंततोगत्वा भगीरथ ही इस पुनीत कार्य को सिद्ध कर पाये। स्वर्ग से धरती पर अवतरित होने के ये ऐतिहासिक और बड़े ही रोचक प्रसंगों को जब मैं पढ़ता था तो मेरे मन में आया कि क्यों न इसे छन्दबद्ध कर एक काव्य के रूप में गंगा के अथक संघर्ष और भगीरथ के शौर्यशाली परिश्रम को माँ गंगा को समर्पित करूँ।
मैं चाहता हूँ कि विश्व का कोई भी व्यक्ति यदि गंगाजल का स्पर्श करे तो वह उस संघर्ष, उस त्याग, उस कष्ट को भी महसूस करे जो माँ गंगा ने जीव-जगत के लिए पल-पल सहे हैं। यह बात हम सबके अन्तर्मन में स्वतःस्फूर्त एक अखण्ड ज्योत की तरह प्रदीप्त हो। जहाँ एक ओर गंगा हमारी अनुपम संस्कृति, सुन्दर व स्वस्थ परम्पराओं की अधिष्ठात्री है तो वहीं दूसरी ओर पावन जल की निर्मलता असंख्य लोगों को जीवन देकर उनको अमृत पान कराती है। पेड़-पौधों को सिंचित कर प्राणवायु उत्सर्जन में योगदान देती है, खेतों को अपने शीतल जल के सिंचन से अन्न-धन पैदा करती है। भारतीय सनातन धर्म में हर शुभकार्य गंगाजल के स्पर्श से प्रारम्भ होते हैं। पितों को मोक्ष प्राप्ति हेतु गंगा का स्पर्श आवश्यक है। अनगिनत ऐसे उदाहरण हैं जो गंगा को हमारी 'जीवन रेखा' बनाती है। इसलिए मैं माँ गंगा को 'विश्व धरोहर' के रूप में भी सम्बोधित करता हूँ।
माँ गंगा पृथ्वी पर जिस उद्देश्य हेतु अवतरित हुई वह आज भी अपने कर्मपथ पर अविरल प्रवाहमान होकर उसी कार्य में रत है। स्वर्ग से धरती पर आते हुये उसे जो कठिनाइयाँ जो वेदना उसके मानस ने झेली हैं वे सब अवर्णनीय हैं। हमारी न तो इतनी सामर्थ्य और न इतनी विद्वता है कि हम उसकी उस संघर्षमयी यात्रा को अनुभूत कर सकें। वह तमाम थेपेड़ों को सहते हुये भी आज भी मानव कल्याण के अपने कर्म से विमुख नहीं है, किंतु मानव? क्या मानव कटिबद्ध है अपने दायित्वों और माँ गंगा के प्रति अपनी जिम्मेदारियों के लिए? पहाड़ों से उतरते हुये धीरे-धीरे माँ गंगा का आँचल प्रदूषणों के दुष्प्रभाव से मैला हुआ जा रहा है। मैं दिनभर में न जाने कितनी बार माँ गंगा का स्मरण करता हूँ। यूँ तो गंगा की ओजस्वी, निर्मल जलधारा सदा ही पवित्र रही है, लेकिन पतित पावनी इस अमृतधारा की बेपरवाही, लापरवाही अक्षम्य है। यह समस्त जीव-जगत को संकट में ला सकता है। इसलिए यह आवश्यक है कि हम माँ गंगा की आरती उतारने के साथ-साथ उसकी स्वच्छता और निर्मलता बनाये रखने का संकल्प भी लें।
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