साहित्यकार समाज में रहते हुए समाज से प्राप्त अनुभवों को साहित्य में आबद्ध करता है। साहित्य मूलतः संवेदना की उपज है, यह मानवीय संवेदना समाज से मिलती है और साहित्य से मिलजुल कर सामाजिक संवेदना का रूप धारण कर लेती है, जिसके विवेचन द्वारा साहित्य के समाजशास्त्र का स्वरूप निर्धारित किया जा सकता है। युगीन साहित्य उस समाज के संघर्ष को अभिव्यक्ति एवं नूतन दिशा प्रदान करता है।
मैत्रेयी पुष्पा हिन्दी जगत की प्रख्यात लेखिका एवं कथाकार हैं। इनके कथा-साहित्य में विलक्षणता, खुलापन, अनौपचारिकता सर्वत्र परिलक्षित होती है। जिस अंचल ने लेखिका को जन्म एवं संस्कार दिए हैं उसकी जड़ता को सूक्ष्म दृष्टि से निहार कर कलम द्वारा प्रतिलिखित करने का प्रयास किया है। १६६४ में इदन्नमम के साथ समूचे साहित्यिक परिदृष्य को अपनी मौलिक उद्भावना तथा चेतना के साथ अभिभूत किया तब से उनके नौ उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। साहित्य और समाजशास्त्र का मुख्य सरोकार मनुष्य का सामाजिक जगत, जगत के प्रति अनुकूलता और उसे बदलने की इच्छा से है।
समाजशास्त्रीय अध्ययन वास्तव में युग की सामाजिक परिस्थितियों के आकलन के साथ ही उन आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक आधारों को अपने में समाहित किये हुए है जिनके समष्टिगत अध्ययन से हिन्दी उपन्यास साहित्य को एक नया रूप मिलता है। समाजशास्त्र समाज पर सर्वतोमुखी प्रकाश डालता है। समाज के हर पहलू पर विचार करना तथा हर समस्या का वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन करना समाजशास्त्र के अन्तर्गत आता है। समाजशास्त्र में यद्यपि नारी, पुरुष बाल, वृद्ध सभी की समस्याओं का विवेचन होता है परन्तु समाज में व्याप्त अशिक्षा, पिछड़ेपन, तथा रूढ़ियों से ग्रस्त सर्वाधिक नारी समाज ही है। नारी समाज के उत्थान हेतु नारी जीवन से जुड़े विभिन्न पहलुओं को उजागर करने वाले उपन्यास, कथा-साहित्य आदि विधाएँ समाज की जरूरत बन गयी हैं।
प्रेमचन्द से लेकर मैत्रेयी पुष्पा तक के हिन्दी उपन्यासों में कथ्य व कथनशैली में विराट अन्तर आया है क्योंकि परिवर्तन की सारी दिशाएँ समाज पर निर्भर हैं अतः किसी भी साहित्यिक ग्रंथ का अध्ययन समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में किया जाना आवश्यक हो जाता है। मैत्रेयी जी ने उन परिस्थितियों और विश्वासों पर प्रहार किया है जो पुरानी लकीर को पीटने के फेर में जीवन के यथार्थ का सामना करने में असमर्थ हैं।
साहित्य की विविध विधाओं में उपन्यास एक ऐसी विद्या है जो व्यक्ति और समाज के बनते-बिगड़ते रिश्तों, विसंगतियों, विद्रूपताओं, विविधताओं, अन्तर्विरोचों, वैशिष्ट्रियों और वैचित्र्यों को अधिक निकट से प्रकट करने में पूर्ण रूप से समर्थ हैं। सौभाग्यवश मुझे उपन्यास साहित्य पर शोध करने का अवसर मिल गया। मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों को पढ़ने की मेरी तीव्र इच्छा एवं उपन्यास में विशेष रुचि ने मुझे इस दिशा में कार्य करने के लिए प्रेरित किया। इसलिए मैंने "मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों का समाजशास्त्रीय अध्ययन" विषय का शोथ हेतु चयन किया। समाजशास्त्रीय विश्लेषण इसलिए कि उनके उपन्यास प्रत्येक स्तर पर सामाजिक जीवन की अन्तर्धारा से संपृक्त हैं।
प्रस्तुत शोध प्रबन्ध पाँच अध्यायों में विभाजित है :
प्रथम अध्याय : 'मैत्रेयी पुष्पा का व्यक्तित्व और कृतित्व' के अन्तर्गत मैत्रेयी पुष्पा के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला गया है। इसमें मैत्रेयी पुष्पा के जन्म, जन्म-स्थान, पारिवारिक परिस्थितियाँ, परिवेश, शिक्षा-दीक्षा पर दृष्टि डाली गई है। इनके कृतित्व में उपन्यास, कहानी, नारीविमर्श से सम्बन्धित लेख सम्मिलित हैं। सभी उपन्यासों की समीक्षा और सार प्रस्तुत किये गये हैं। मैत्रेयी पुष्पा का समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण एवं हिन्दी महिला लेखन की परम्परा में मैत्रेयी पुष्पा के सहयोग को विश्लेशित किया गया है।
द्वितीय अध्याय 'हिन्दी उपन्यास और समाजशास्त्र एक सैद्धान्तिक अध्ययन' के अन्तर्गत व्यक्ति, समाज और साहित्य के पारस्परिक सम्बन्ध को प्रस्तुत किया गया है। समाजशास्त्र की परिभाषा एवं स्वरूप, समाजशास्त्र के तत्त्व के साथ-साथ सामाजिक व समाजशास्त्रीय दृष्टि में अन्तर पर प्रकाश डाला गया है। तत्पश्चात् समाजशास्त्रीय अध्ययन का उद्देश्य एवं क्षेत्र पर विचार किया है।
तृतीय अध्याय : 'मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में व्यक्ति, परिवार एवं समाज' का चित्रण बदलते पारिवारिक सम्बन्ध एवं विघटन का अध्ययन भी सम्मिलित किया गया है। समाज में मुख्य रूप से सामाजिक जीवन की अभिव्यक्ति, सामाजिक पर्यावरण और अन्तः क्रिया एवं मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में बदलते गाँव, नगर और समाज का समाजशास्त्रीय विश्लेषण में प्रभाव परिणाम व भविष्य को उद्घाटित करने का प्रयास किया गया है। सामाजिक एवं नारी विषयक समस्याएँ भी चित्रित की गई हैं।
चतुर्थ अध्याय : 'मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों में चित्रित समाज की आर्थिक एवं राजनीतिक स्थिति का चित्रण' के अन्तर्गत आर्थिक परिवेश में परिवर्तित सामाजिक सम्बन्ध, स्वावलम्बन की चेतना, जाति बोध से श्रेणी बोध की ओर व जाग्रत वर्ग चेतना और वर्ग संघर्ष के नये स्वर को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। वैवाहिक संस्थाओं पर बदलती आर्थिक स्थितियों के प्रभाव के अन्तर्गत यौन सम्बन्ध, तलाक व पुनर्विवाह, महिला के अधिकार, शिक्षा, तकनीक, व्यवसाय में नारी का प्रवेश, शहरीकरण का आकलन किया गया है। आर्थिक व्यवस्था के आधार पर समाज के उच्च, मध्यम व निम्न वर्ग की स्थिति को उद्घाटित करने का प्रयास किया है।
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