मनुस्मृति पर कई कारणों से मैं लिखना चाह रहा था। बातें मन-मस्तिष्क में बहुत दिनों से उमड़-घुमड़ रही थीं। मैंने कहीं पढ़ा था कि हिन्दी के प्रख्यात मार्क्सवादी आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा की हार्दिक इच्छा थी कि मनुस्मृति पर कुछ लिखें। फिर भी, शर्माजी वह कार्य न कर सके। उनकी जीवनावधि यह कार्य हाथ में लेने से पहले ही पूरी हो गयी। जो उनके द्वारा होना था वही हो सका। फिर भी, वर्षों बाद उनकी इस इच्छा के बारे में पढ़कर, मेरी जिज्ञासा को बल मिला। संभव है मनुस्मृति के प्रति उनकी धारणा मेरी धारणा से भिन्न रही हो अथवा मेरी धारणा से मिलती-जुलती रही हो लेकिन जो पत्ता खुल ही न सका उसका अनुमान ही लगाया जा सकता है। हाँ, इतना अवश्य है कि वह लिखते तो कुछ अद्भुत होता। विषय पर उनकी जैसी विश्लेषणात्मक क्षमता गिने-चुने लोगों में ही पायी गयी है।
अस्तु, मेरे मन में विचार आया कि मनुस्मृति जब डॉ. रामविलास शर्मा जैसे विद्वान को आमंत्रित करती रही तब इस पर मेरे द्वारा लेखन करना अनुचित नहीं होगा। जिन कारणों से यह लेखन में करना चाहता था वे तो अपने स्थान पर थे ही। एक बार मन बन जाने के बाद मैंने मनुस्मृति का फिर से आदि से अन्त तक जिज्ञासापरक अध्ययन किया। इस विषय में अन्य सन्दर्भ सामग्री का भी गहराई से अध्ययन किया। आदरणीय श्री ओंकारनाथ शुक्ल (से.नि.शिक्षक) मौरावाँ (उन्नाव) ने भी इस लेखन-यज्ञ के सहायतार्थ दो अप्राप्य पुस्तकें मुझे सहर्ष भेंट कीं। एक थी व्याकरणाचार्य पं. गिरीशचन्द्र अवस्थी (लखनऊ) की सन् 1957 में प्रकाशित पुस्तक "दस्यु- विवेचन तथा दास-मीमांसा" और दूसरी पं. कमलाकर की 'गोत्र-प्रवर' पर विद्वतापूर्ण पुस्तक (काव्यानुवाद) इन सभी उपलब्धियों के बाद भी मनुस्मृति के कई विन्दु ऐसे थे जिन पर बार-बार मंथन करना पड़ा। समयगत प्रभाव समयातीत प्रभाव से बार-बार टकराव करता रहा। मनुस्मृति की राजनीतिक निन्दा के समानान्तर और इसके सापेक्ष अध्ययन-चिन्तन की प्रक्रिया में बहुत समय तक लेखन-कार्य रुका रहा।
एक दिन दूरदर्शन के एक निजी चैनल पर एक परिचर्चा सुनने को मिली। 'हिन्दुओं में सगोत्र विवाह' इसका विषय था। जो वक्ता इसके समर्थन में था वह इसे परम्परा बताकर अपना पक्ष प्रस्तुत कर रहा था किन्तु इसके आधार के बारे में उसे पता नहीं था। इस बात का लाभ उठाकर अन्य सहभागी उसका विरोध करते हुए ललकार रहे थे। उसे रूढ़िवादी तथा न जाने क्या-क्या बता रहे थे। वार्ता तो बिना किसी नतीजे के (जैसा कि सर्वदा होता है) समाप्त हो गयी लेकिन मुझे उस रात ठीक से नींद नहीं आयी। इसका कारण था कि इस वार्ता में एक धर्माचार्य भी थे जिन्होंने कई बार यह कहा कि हिन्दूधर्म में यह कहीं नहीं लिखा है कि सगोत्र विवाह नहीं करना चाहिये। उनके अनुसार सगोत्र विवाह में कुछ भी अनुचित न था। मुझे इसका निर्णय चाहिये था। सवेरा होते ही मैंने मनुस्मृति में देखा कि इसके अध्याय 3, पृ. 72, श्लोक 5 में लिखा है-
"असपिण्डा च या मातु रसगोत्रा च या पितुः
सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने।।"
(जो कन्या माता की सात पीढ़ी के भीतर की न हो, पिता के सगोत्र की न हो, वह द्विजातियों के द्वारा ब्याहने और सन्तानोत्पत्ति के योग्य है।) और इसी सन्दर्भ में मनुस्मृति के अध्याय 10, पृ. 434, श्लोक 24 में लिखा है- "व्यभिचारेण वर्णानामवेद्यावेदनेन च। स्वकर्मणां च त्यागेन जायन्ते वर्णसंकरा : ।।
ब्राह्मणादि वर्णों के स्ववर्ण से भिन्न वर्णों में स्त्रीगमन से, सगोत्र में विवाह करने से और स्वकर्म के त्याग से वर्णसंकर होते हैं।)
अतः मनुस्मृति में या सनातन धर्म के अन्य ग्रन्थों में क्या लिखा है, इसके लिये उनका अध्ययन नितांत आवश्यक है। इसके बिना इनके बारे में अनर्गल टिप्पणी करना धूर्तता का ही परिचय देना है। इस बारे में यथाप्रसंग "प्रसंग रत्नाकर" का एक श्लोक गुनता रहा हूँ-
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