अनुवाद-विज्ञान के प्रति मेरे मन में आरंभ से ही रुचि रही है। 'मराठी से हिंदी में अनूदित उपन्यास साहित्य का अनुवादपरक समीक्षात्मक अनुशीलन शोध-प्रबंध पढ़ने पर मेरी रुचि में अधिक वृद्धि हुई और मैंने 'मराठी से हिंदी में अनूदित नाट्य साहित्य का अनुवादपरक समीक्षात्मक अनुशीलन' विषय पर अनुसंधान-कार्य करने का संकल्प किया।
मराठी से हिंदी में साहित्यिक तथा साहित्येतर कई ग्रंथों के अनुवाद हुए हैं; परंतु उनकी अनुवादपरक समीक्षा की दिशा में अभी तक विशेष प्रयास नहीं हुए हैं। इस दिशा में कुछ मूलभूत तथ्यों की ओर संकेत करने का उद्देश्य सामने रखकर यह अनुसंधान कार्य हाथ में लिया गया था।
इसके पहले डॉ. पद्माकर जोशी ने 'हिंदी में अनूदित मराठी साहित्य ग्रंथ में 1977 ई. तक के अनुवाद-कार्य का परिचय प्रस्तुत किया था। उन्होंने अनुवाद-कार्य का सामान्य परिचय ही दिया है; और वह भी मूल ग्रंथों को आधार बनाकर । वहाँ अनुवाद-कार्य की समीक्षा नहीं है। श्रीमती अलका पवार ने 'मराठी से हिंदी में अनूदित नाटकों का विश्लेषणात्मक अध्ययन' शीर्षक से अनूदित नाट्य-साहित्य की समीक्षा की है परंतु वह भी अधिकतर कथ्य तक सीमित है।
मराठी समृद्ध भाषा है। उसका नाट्य साहित्य और भी समृद्ध है। मराठी में नाट्य साहित्य की लंबी परंपरा है। इस परंपरा का आरंभ विनायक जर्नादन कीर्तने (1861 ई.) से माना जाता है। मराठी नाट्य साहित्य को प्रमुखतः चार भागों में विभाजित किया जा सकता है। पौराणिक नाटकों का युग, बुकीश नाटकों का युग, ऐतिहासिक नाटकों का युग, सामाजिक नाटकों का युग। मराठी नाट्य-साहित्य के उपर्युक्त युगों में कई नाटककार हुए। इनमें कुछ महत्वपूर्ण नाटककार निम्नानुसार हैं- बलवंत पांडुरंग किर्लोस्कर, गोविंद बल्लाळ देवळ, श्रीपाद कृष्ण कोल्हटकर, कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर, राम गणेश गडकरी, भा. वि. वरेरकर, विष्णुपंत औंधकर, य. ना. टिपणीस, प्र. के. अत्रे, नागेश जोशी, वि. वा. शिरवाडकर, पु. ल. देशपांडे, वसंत कानेटकर, विजय तेंडुलकर, जयवंत दलवी, रत्नाकर मतकरी, गो. पु. देशपांडे, महेश एलकुंचवार आदि।
उक्त नाटककारों की रचनाओं को विषयवस्तु की दृष्टि से पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक, पारिवारिक, वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। मराठी में व्यंग्यात्मक नाटकों की भी कमी नहीं है। इन वर्गों के प्रमुख नाटकों के हिंदी में अनुवाद किए गए हैं। विजय तेंडुलकर तथा वसंत कानेटकर के अधिकतर नाटकों के अनुवाद हुए हैं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि मराठी से हिंदी में नाट्यानुवाद की भी सुदीर्घ परंपरा है। इस परंपरा ने आशय, अन्य कलाओं के लिए अवसर तथा अभिनयानुकूल प्रयोगशीलता की दिशा में उल्लेखनीय प्रयास किए हैं।
भारत की अन्य भाषाओं में इन प्रयोगों का प्रवेश हिंदी के माध्यम से ही हो सकता है। यही कारण है कि कई मराठी नाटकों के हिंदी में अनुवाद किए गए हैं। यद्यपि अनुवाद कार्य की सुदीर्घ परंपरा मिलती है; तथापि इस अनुवाद-कार्य के अन्यान्य पक्षों की समीक्षा की ओर गंभीरता से देखा नहीं गया है और तो और अध्ययन-अनुशीलन की आरंभिक, आवश्यक सामग्री के रूप में परिपूर्ण अद्यतन सूची तक नहीं बनाई गई है। अनुवाद-कार्य के स्तर को लेकर सोचना, उस दिशा में कार्य करना आदि तभी संभव है, जब संपन्न अनुवाद-कार्य की समीक्षा की जाए। इसी आवश्यकता को ध्यान में रखकर प्रस्तुत अनुसंधान कार्य किया गया है।
अध्याय-विभाजन का औचित्य
सममूल्यता, द्वन्द्वात्मकता, अनुवाद परिवृत्तियाँ तथा अनुवादक का योगदान आदि पक्ष अनुवाद समीक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। प्रत्येक नाट्यानुवाद उक्त बिंदुओं की दृष्टि से तथा अनुवाद की अन्य प्रवृत्तियों की दृष्टि से एक-दूसरे से किसी मात्रा में समानता तो रखता है पर यह समानता इतनी नहीं कि इन सब अनुवादों को किसी सामान्य कथन या निष्कर्ष में समेट लिया जाए। अतः उक्त कारक तत्वों की न्यूनता या अधिकता को दर्शाने के लिए हमने गहन समीक्षा हेतु छह नाटक लिए हैं। जैसे- कीचकवध, हाच मुलाचा बाप, तुझे आहे तुजपाशी, घाशीराम कोतवाल, कस्तुरीमृग, बॅरिस्टर आदि। इसमें हर नाटक के अनुवादपरक अध्ययन के लिए स्वतंत्र अध्याय की योजना की गई है। अनुवाद की प्रवृत्तियों के अनुसार अध्याय-विभाजन करने से अध्यायों की संख्या कम की जा सकती थी, लेकिन उस स्थिति में अनुवाद प्रवृत्तियों की दृष्टि से इन नाट्यानुवादों में साम्य-वैषम्य विषयक तथ्य सामने न आते। अतः प्रस्तुत प्रबंध को नौ अध्यायों में विभाजित किया गया है। मराठी से हिंदी में किए गए व्यापक नाट्यानुवाद को अधिक वस्तुनिष्ठ रूप से विश्लेषित करने के प्रयास में अध्यायों की संख्या बढ़ गई है।
पहला अध्याय : 'मराठी से हिंदी में रूपांतरित नाट्य साहित्य का सामान्य परिचय के अंतर्गत मराठी से हिंदी में साहित्यानुवाद की परंपरा को संक्षेप में स्पष्ट करने का प्रयास किया है। इसमें अनूदित काव्य, कहानी, उपन्यास का संक्षिप्त विवरण दिया है। अंत में मराठी से हिंदी में अनूदित नाट्य साहित्य पर विस्तार से विचार किया है। नाट्यानुवाद की आवश्यकता, प्रेरणाएँ, मूल तथा अनुवाद के प्रकाशन काल के अंतर, रूपांतरण और भाषिक अनुवाद आदि कई मुद्दों की विस्तार से चर्चा की है।
दूसरा अध्याय : में 'अनुवाद और उसकी समीक्षा: सैद्धांतिक पक्ष में सैद्धांतिक
बातों की चर्चा की गई है। अनुवाद की परिभाषाएँ, स्वरूप, अनुवाद-कार्य की विशिष्टता, अनुवाद की प्रक्रिया, प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले कारक तत्व इत्यादि की चर्चा की है। इसी अध्याय के उत्तरार्ध में अनुवाद समीक्षा की आवश्यकता तथा अनुवाद समीक्षा की वर्तमान स्थिति पर विचार किया है। उपर्युक्त सैद्धांतिक बातों पर अनेक अनुवाद चिंतकों ने अपनी पुस्तकों में लिखा है। इसलिए हमने इस पर ज्यादा जोर नहीं दिया। हमने अनुवाद समीक्षा के लिए दो प्रारूपों को प्रस्तावित किया है। इनमें से एक अनुवाद की सतही समीक्षा के लिए है तो दूसरा अनुवाद की गहन समीक्षा के लिए।
तीसरा अध्याय में 'मराठी नाटको के हिन्दी रूपांतरण की समीक्षा है। प्रस्तुत अध्याय में हमने मराठी नाटकों के हिंदी अनुवाद कार्य को समग्रता में ग्रहण कर उसके अर्थपक्ष और अभिव्यक्ति पक्ष का अनुशीलन किया है। इस अनुशीलन में अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए मूल नाटक और अनुवाद के उदाहरणों को आधार में लिया है।
चौथा अध्याय में गहन समीक्षा हेतु प्रस्तावित प्रारूप का आधार लेते हुए मराठी नाटक 'कीचकवध के हिंदी रूपांतरण की समीक्षा प्रस्तुत की है।
पाँचवा अध्याय : में हाच मुलाचा बाप' के हिंदी रूपांतरण 'यही है वर का बाप' की समीक्षा की है। प्रस्तुत अध्याय में अनुवाद की गहन समीक्षा हेतु प्रस्तावित प्रारूप का आधार ग्रहण करते हुए अनुवादपरक अनुशीलन प्रस्तुत किया है।
छठा अध्याय में मराठी के प्रसिद्ध विनोदी नाटककार पु. ल. देशपांडे के 'तुझे आहे तुजपाशी के हिंदी रूपांतरण 'कस्तुरीमृग' की समीक्षा प्रस्तुत की है।
सातवाँ अध्याय में 'घाशीराम कोतवाल' के हिंदी रूपांतरण 'घासीराम कोतवाल' की समीक्षा है।
आठवाँ अध्याय : में सामाजिक नाटक 'कस्तुरीमृग के हिंदी रूपांतरण 'बिन चेहरों के पुरुष की समीक्षा प्रस्तुत की है।
नवाँ अध्याय में मराठी नाटक 'बॅरिस्टर' के हिंदी रूपांतरण 'बैरिस्टर' की समीक्षा की है।
उपसंहार में पूर्व विवेचन एवं विश्लेषण को संक्षेप में प्रस्तुत करते हुए केवल निष्कर्षों की स्थापना की गई है।
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