भूमिका
शिशु शिक्षा के संदर्भ में विद्या भारती का चिन्तन क्षेत्र वृहद है। वास्तव में, शिशु शिक्षा का विषय विद्यालय जाने पर प्रारंभ नहीं होता अपितु यह तो मात्र माता-पिता बनने के विचार अर्थात शून्य से ही प्रारंभ हो जाता है। अतः विद्या भारती द्वारा लालयेत् पंचवर्षाणि (शून्य से पांच वर्ष) सूत्र के आधार पर शिशु शिक्षा का भारतीय प्रतिमान बनाया गया है। इस प्रारम्भिक अवस्था में शिशु शिक्षा का पर्याय शिशु विकास से ही होता है अतः इसके साथ जुड़े हुए अभिभावक, आचार्य एवं शिशु मनोवैज्ञानिक सभी को वैचारिक स्पष्टता होनी जरूरी है क्योंकि ये सब ही शिशु विकास के आधार स्तंभ है। शिशु शिक्षा के इस वास्तविक प्रतिमान को साकार स्वरूप देने के लिए देशभर में कार्यकर्ता विविध माध्यमों से घर एवं विद्यालयों को क्रमशः माता-पिता/परिवार एवं आचार्यों को मार्गदर्शन देने का कार्य कर रहे हैं क्योंकि शिशु की प्रारम्भिक शिक्षा के केंद्र मुख्यतः घर और विद्यालय ही हैं।
आज स्पर्धा के इस युग में शिशु विकास (शून्य से पांच) की सहज दृष्टि अदृश्य सी हो गई है। उसका पुनः जागरण करना आवश्यक है। पुनः जागरण के दो मार्ग हैं-
1. प्रत्यक्ष अनुभूति करके शिशु स्वभाव को समझना, तथा
2. शिशु विकास की यात्रा में सहयोगी शास्त्र आधारित साहित्य पढ़ना।
विद्या भारती की अखिल भारतीय शिशु वाटिका सहसंयोजिका श्रीमती नम्रता दत्त दीदी ने वर्षों तक शिशु शिक्षा क्षेत्र में कार्य द्वारा अनुभव प्राप्त किया है। स्वयं के अध्ययन एवं अनुभव के आधार पर आपने शून्य से पांच वर्ष के शिशु के माता-पिता और आचार्य के लिए वेब पोर्टल 'राष्ट्रीय शिक्षा डॉट कॉम' पर शिशु शिक्षा के 40 लेख प्रस्तुत आशा है कि यह पुस्तक परिवारजनों (घर को विद्यालय कैसे बनाएँ) एवं शिशु वाटिका के सभी कार्यकर्ताओं (विद्यालय को घर कैसे बनाएँ) के लिए उत्तम मार्गदर्शिका बनेगी। भावी माता-पिता, विद्यालय एवं संबंधित संस्थानों के लिए शून्य से पांच वर्ष की शिशु विकास प्रक्रिया में इस पुस्तक का प्रयोग मार्गदर्शिका के रूप में अवश्य करें। नम्रता दीदी को बहुत बहुत बधाई।
पुस्तक परिचय
भौगोलिक वातावरण के आधार पर भी हम देखते हैं कि मरुस्थल में कांटेदार झाड़ियां एवं नमी वाले स्थानों में रसदार वृक्ष और फल होते है। शिशु भी एक नन्हा पौधा है। उसे जैसा वातावरण (प्रेमपूर्ण / कठोर) मिलेगा वैसा फल लगेगा। जन्म से पूर्व माता के गर्भ में उसका माता के साथ सुरक्षा का तारतम्य स्थापित हो जाता है। इसलिए जन्म के बाद भी वह माता की गोद में सुरक्षा एवं सुख का अनुभव करता है। माता की उपस्थिति में उसे सब अच्छा लगता है। शैशवास्था का यह समय उसके लिए संक्रातिकाल होता है क्योंकि इस समय में उसकी अभिवृद्धि और विकास दोनों ही होने हैं। उसे परावलम्बी से स्वावलम्बी बनना है। विकास स्वाभाविक प्रक्रिया है जो स्वतः ही सहजता से होता जाएगा बशर्ते कि हम शिशु के मनोविज्ञान को समझ कर उसे उचित वातावरण दे पाएँ। इस अवस्था को संस्कार ग्रहण करने की अवस्था कहा जाता है। संस्कार ग्रहण करने का प्रथम विद्यालय 'घर' एवं प्रथम गुरु 'माँ' को ही माना गया है। परिवार का स्नेह से परिपूर्ण संस्कारक्षम वातावरण ही उसे संस्कारित कर सकता है। घर से बाहर किसी विद्यालय के प्रांगण में परिवार जैसा प्रेस और सुरक्षा मिलना सम्भव नहीं है
Hindu (हिंदू धर्म) (13443)
Tantra (तन्त्र) (1004)
Vedas (वेद) (714)
Ayurveda (आयुर्वेद) (2075)
Chaukhamba | चौखंबा (3189)
Jyotish (ज्योतिष) (1543)
Yoga (योग) (1157)
Ramayana (रामायण) (1336)
Gita Press (गीता प्रेस) (726)
Sahitya (साहित्य) (24544)
History (इतिहास) (8922)
Philosophy (दर्शन) (3591)
Santvani (सन्त वाणी) (2621)
Vedanta (वेदांत) (117)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist