जीवन को समग्रता से जीना ही जीवन का पहला सुख है। जीवन में विभिन्नताएं भी हैं, विषमताएं भी हैं और उछालें मारने के अवसर भी हैं। जीवन का एक व्यापक समष्टि भाव भी है और व्यष्टि रूप संकुचन भाव भी है। जीवन खण्ड दृष्टि से भी जिया जा सकता है, प्रकृति के साथ जुड़कर भी जिया जा सकता है और समर्पण करके भी जी सकते हैं। जीवन कर्म के सहारे भी लोग जीते हैं और भाग्यवादी केवल भाग्य के भरोसे भी। जीवन शुद्ध शरीर और भौतिक सुखों के लिए भी जिया जा सकता है। और आत्मिक धरातल पर शान्तिपूर्ण ढंग से भी। जीवन सिद्धान्तों के आधार पर भी जी सकते हैं और स्वच्छन्द रहकर भी। जीवन अभावग्रस्त मानसिकता से भी जिया जा सकता है और संतोष मानकर भी। और भी न जाने कितने रूप हैं जीवन के। इन सबमें एक ही सत्य है-सब जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। चाहे वृद्ध हो, भयंकर रोगों से ग्रस्त हो अथवा घोर दरिद्र। किन्तु; यह जानना आवश्यक भी है कि क्यों जीना चाहता है। इस 'क्यों' में ही जीवन की सार्थकता छिपी हुई है। इस प्रश्न के उत्तर के बिना जीवन और मृत्यु का भेद ही समाप्त हो जाएगा। उस जीवन को जीना नहीं कहा जा सकता, जिसका कोई उद्देश्य न हो, जहां कुछ करने की, कुछ बनने की कामना जीवन का आधार न हो।
वैदिक दर्शन में एक मूल सिद्धान्त यह भी है कि सृष्टि में सभी पुरुष रूप है। नारी, मादा जैसा कोई रूप नहीं है। पुरुष और प्रकृति मिलकर इस सृष्टि को और जीवन को चलाते हैं। एक शक्ति है, एक शक्तिमान/दोनों अभिन्न हैं। एक में ही दोनों तत्त्व रहते हैं। इसी को अर्द्धनारीश्वर का रूप कहा गया है। सृष्टि के तत्त्वों का कोई लिंग भेद भी नहीं है। बाद की व्याख्याओं में अनेक प्रकारान्तर भेद जुड़ गए। हर पुरुष रूप सृष्टि के साथ प्रकृति रूप शक्ति जुड़ी है। चूंकि नारी भी मूल में पुरुष रूप है, अतः इसके साथ भी शक्ति अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई है।
कृष्ण शक्तिमान है, तो राधा उनकी शक्ति है। शक्ति को शक्तिमान से अलग नहीं किया जा सकता। कृष्ण यदि सूर्य हैं, तो किरणें, रश्मियां राधा हैं। अतः जीवन को समझने का पहला सोपान ही यही है कि हम अपने भीतर शक्ति और शक्तिमान, दोनों को देख सकें। उनके स्वरूप को समझ सकें। और यह भी समझ सकें कि यदि कृष्ण को पाना है, तो हर एक को राधा बनना ही पड़ेगा। चाहे वह नर है या नारी।
इस जीवन यात्रा को समझने का दूसरा महत्त्वपूर्ण सोपान है भीतर के अव्यय तक पहुंच पाना। शरीर के भीतर मन है, हृदय है (ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र रूप अक्षर पुरुष) और अक्षर के गर्भ में अव्यय है। गीता में कृष्ण का उद्घोष है कि मैं ही अव्यय हूं। सब जीवों में मेरा ही अंश है। जैसे-जैसे व्यक्ति अपने आवरणों को समेटता जाता है, अव्यय प्रकट होता है। वही कृष्ण है। वही मेरा निजी स्वरूप है। जिस शक्ति अथवा माया के आवरणों को हटाता गया, वही राधा है। राधा के हृदय में ही श्याम रहते हैं। पुरुषार्थ काव्य में स्थान-स्थान पर भीतर झांकने के लिए इसी दृष्टि से प्रेरित किया है। ईश्वर करे यह प्रयास सार्थक हो।
व्यक्ति चाहे तो मनुष्यवत् जी सकता है, देवत्व प्राप्त करने के लिए जी सकता है। वह चाहे तो पशुवत् भी जी सकता है। जिस प्रकार भी जीवन चाहे, अगली योनि चाहे मिल जाएगी। वह चाहे तो जन्म-मृत्यु के चक्र से बाहर भी निकल सकता है। नारायण बन सकता है। मोक्षगामी हो सकता है। हमारे पुरुषार्थ का अन्तिम लक्ष्य भी मोक्ष ही है।
क्या अकेले पुरुषार्थ के सहारे जीवन सफल और सार्थक ढंग से जिया जा सकता है? संभव नहीं है। संभव ही होता तो क्यों कोई अपने कर्मों को और भाग्य को कोसता। क्यों किसी और के सिर पर विफलता का ठीकरा फोड़ता। क्यों समय को दोष देता। सफलता और विफलता के सूत्रों से भारतीय वाङ्मय भरा है। लेकिन सभी सूत्रों का आधार विद्या और अविद्या को माना गया है। दोनों ही माया के विभिन्न रूप हैं।
धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य को विद्या का फल बताया है। इनको प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ भी धर्म से ही शुरू होता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। चार अन्य तत्त्व हमारे पुरुषार्थ के साथ जुड़कर उसकी दिशा एवं परिणामों को बदल जाते हैं। भाग्य, जो पूर्व कर्मों के फलों का विपाक है। निमित्त, ऐसा बहाना जो हमारे कार्य की दिशा को बदल जाता है। काल के अनुरूप परिणाम बदलता है एवं काल के अनुरूप ही फल प्राप्त होता है। मूल कारण सारी गतिविधियों के भीतर समाहित होता है। कार्य के प्रति हमारा संकल्प कितना दृढ़ है, हमारा मनोयोग कितना है, श्रद्धा एवं समर्पण का भाव कैसा है, अहंकार और ममकार किस रूप में प्रभावी हो रहे हैं, अथवा हम तटस्थ भाव में स्थित हैं। वर्तमान में कार्य से जुड़े हैं, अथवा संकल्प-विकल्प में घिरे हुए हैं। अतीत और अनागत में रमण कर रहे हैं। कार्य स्वयं के लिए कर रहे हैं, दिखावे के लिए कर रहे हैं अथवा निस्वार्थ भाव से कर रहे हैं। या केवल प्रमाद-रूप ही है। क्योंकि अविद्या के जो पाश हैं जिनके कारण हम पशु कहलाते हैं, वे भी अपना प्रभाव दिखाए बिना नहीं रहते। अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष और अभिनिवेश। आज भ्रांति इतनी बढ़ गई है कि अस्मिता जैसे अवांछनीय तत्त्व को भी हम प्रतिष्ठा का स्वरूप मानने लग गए हैं।
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