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आधुनिक हिन्दी उपन्यास: Modern Hindi Novels

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Specifications
Publisher: Murari Lal And Sons, Delhi
Author Neelam Rana
Language: Hindi
Pages: 276
Cover: HARDCOVER
9x6 inch
Weight 490 gm
Edition: 2024
ISBN: 9789380117768
HBO243
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Book Description
प्राक्कथन

आधुनिक हिन्दी साहित्य के अन्य अंगों के समान उपन्यास का विकास भी अंग्रेजी साहित्य के प्रभाव और सम्पर्क से हुआ है। यूरोप में उपन्यास साहित्य का विकास रोमांटिक कथा साहित्य से हुआ। यूरोप का रोमांटिक कथा साहित्य भारतीय प्रेमाख्यानों की अरबों के माध्यम से विश्व-यात्रा के समय उनसे निश्चित रूप में प्रभावित हुआ होगा। इस प्रकार भारतीय कथा-साहित्य अपने थोड़े-बहुत रूप-परिष्करण और परिवर्तन के पश्चात् उपन्यास के रूप में पुनः भारत लौटा। निःसन्देह भारतीय साहित्य में आधुनिक उपन्यासों के बहुत से उपकरण विद्यमान थे, किन्तु 19वीं शती के हिन्दी साहित्य में उपन्यास का उद्भव और विकास अंग्रेजी साहित्य के परिणामस्वरूप हुआ। भारत के जो प्रदेश अंग्रेजी सम्पर्क में पहले आए, उनमें उपन्यासों का प्रचलन अपेक्षाकृत कुछ पहले हुआ। यही कारण है कि बंगला में उपन्यासों की रचना हिन्दी से पहले आरम्भ हुई, अतः हिन्दी-उपन्यास-साहित्य पर बंगला के अनेक लेखकों का प्रभाव पड़ा। हिन्दी-गद्य-साहित्य के अन्य अंगों के समान उपन्यासों का उद्भव आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रारम्भ में भारतेन्दु-काल में हुआ। यह ठीक है कि आधुनिक उपन्यास का विकास यूरोप में हुआ भारत में नहीं, किन्तु हिन्दी में उपन्यासों का विकास पाश्चात्य उपन्यास साहित्य के अनुकरण पर नहीं हुआ। हिन्दी में उपन्यासों के पूर्व बंगला साहित्य में यह अंग काफी विकसित हो चुका था और कदाचित बंगला साहित्य की देखादेखी में भी उपन्यासों का सूत्रपात हुआ। प्रारम्भिक काल में बंगला के उपन्यासों का हिन्दी में अनुवाद भी कोई कम नहीं हुआ। आधुनिक हिन्दी-साहित्य की उपन्यास परम्परा को संस्कृत के सुबन्ध, दंडी और बाण की परम्परा का पुनर्जीवन कहना भ्रमपूर्ण होगा।

हिन्दी उपन्यास परम्परा में उपन्यासकार सम्राट मुंशी प्रेमचन्द एक ऐसे केन्द्र-बिन्दु हैं जिनके दोनों ओर उपन्यास साहित्य की भिन्न-भिन्न रेखाएं स्पष्ट दीखने लगती हैं। मुंशी प्रेमचन्द से पूर्व हिन्दी-साहित्य में आचार, नीति, उपदेश और सुधार संबंधी उपन्यास लिखे गए या केवल मनोरंजनार्थ तिलस्मी और ऐय्यारी के उपन्यास लिखे गए, जिनका जन-जीवन से कोई संबंध नहीं था। प्रेमचन्द ने कला और जीवन का सन्तुलन उपस्थित कर अपनी मौलिक, प्रौढ़ एवं गरिमामयी कृतियों से जहां हिन्दी-साहित्य को गर्वोन्नत किया वहां वास्तविक रूप में हिन्दी उपन्यास परम्परा का सूत्रपात तथा युग-प्रवर्तन का श्लाध्य कार्य भी किया। प्रेमचन्द के अन्तिम दिनों में उपन्यास-साहित्य में मनोवैज्ञानिक यथा तथ्यवाद, व्यक्तिवाद, कुंठावाद और यथार्थवाद की विकृति, प्रकृतिवाद आदि कतिपय नई प्रवृत्तियों जन्मीं; जो विषयवस्तु एवं लक्ष्य की दृष्टि से प्रेमचन्दोत्तर साहित्य को प्रेमचन्द्र-युग के साहित्य से भिन्न कर देती है।

आधुनिक साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा उपन्यास अभिव्यक्ति का सर्वाधिक सशक्त माध्यम है। साहित्य का जीवन से अभिन्न संबंध है। जीवन की व्यापकता के कारण साहित्यकार को स्वयं की सूक्ष्म दृष्टि से किसी जीवन-दर्शन की खोज करनी पड़ती है। जब कभी वह किसी कथा को उपन्यास के रूप में कहने का निश्चय करता है, तभी उसके मन में कथासूत्र के साथ वह जीवनदृष्टि मूर्त होने लगती है जिसका अनुभव उसने अपने सांसारिक जीवन में प्राप्त किया है। कला की दृष्टि से वह उपन्यास श्रेष्ठ माना जाएगा जिसका लेखक पाठकों पर यह प्रभाव डालने में सफल हो सके कि उसकी रचना से प्राप्त जीवन-दर्शन का संदेश ऊपर से आरोपित नहीं है, वरन् वह भोगा हुआ सत्य है, शाश्वत सत्य है। एक कुशल उपन्यासकार विभिन्न पात्रों के माध्यम से विभिन्न तर्क प्रस्तुत करता हुआ, कुछ से अपने सिद्धांतों का मंडन और कुछ से खंडन कराता हुआ, अंत में अपने दृष्टिकोण का प्रतिपादन करता है। वास्तव में जिस उपन्यास में कोई जीवन दर्शन नहीं होता, वह मात्र सस्ते मनोरंजन की कृति बनकर रह जाता है और कुछ समय बाद उसका जीवन समाप्त हो जाता है। आधुनिक युग से पूर्व की यह धारणा कि उपन्यास केवल मनोरंजन का साधन है, व्यर्थ सिद्ध होती है; परन्तु जीवन-दर्शन की प्रधानता का तात्पर्य यह भी नहीं है कि उपन्यास में केवल गूढ़ दार्शनिक सिद्धांतों का प्रस्तुतीकरण ही किया जाए। अस्तुः उपन्यास को स्वाभाविक तथा सरस बनाने के लिए यह वांछनीय है कि उपन्यासकार अपने विचारों को परोक्ष रूप में अभिव्यक्त करे।

इस पुस्तक के लेखन में अनेक पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं एवं प्रतिवेदनों से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से सहायता ली गई है, अतः उन सभी विद्वान लेखकों, सहायक ग्रन्थों तथा पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों और मूल स्रोतों के व्यवस्थापकों का मैं हृदय से आभार प्रकट करती हूं और अन्त में, मुरारी लाल एंड सन्स का हृदय से धन्यवाद करती हूं जिन्होंने अल्प समय में इस पुस्तक का प्रकाशन सम्भव कराया।

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