भारतीय वाङमय की अनेक रचनाएँ अभी पाठकों के समक्ष उपलब्ध नहीं हो पायी हैं जिन्हें सपादित करके पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने की पूर्ण आवश्यकता है इन अप्रकाशित पांडुलिपियों में विभिन्न विषयों से संबंधित अनेक कवियों की रचनाएं बिखरी पड़ी हैं जिनके संकलन और संपादन से न केवल भारतीय वाङ्मय के इतिहास की काल-क्रमिकता निश्चित की जा सकती है वरन् साहित्य की विभिन्न धाराओं की अविच्छिन्नता भी स्थापित की जा सकती है। प्रस्तुत काव्य-ग्रंथ इसी प्रकार की एक रचना है जिसमें चंद्रमा के भीतर दिखायी पड़ने वाले काले धब्बे के बारे में कवि ने विभिन्न उद्भावनाओं के साथ अपनी काव्याभिव्यक्ति की है। शतक की परंपरा में लिखा गया यह काव्य-ग्रंथ जहाँ एक और भाषा के विकास की कड़ी को प्रस्तुत करता है वहीं दूसरी ओर काव्यालंकार की दृष्टि से एक अनूठी छाप छोड़ता है। कवि के काल के संबंध में विद्वान लेखक ने विभिन्न स्रोतों से प्राप्त सामग्री का अध्ययन करके कवि के रचना काल को निश्चित करने का प्रयास किया है। सस्कृत के विभिन्न काव्यों में बिखरे हुए 'मृगांकशतकम्' के उद्धृत श्लोक इस बात की पुष्टि करते हैं कि कविकंकण संस्कृत कविता के समर्थ हस्ताक्षर हैं।
मुक्तकों की शैली में लिखा गया यह शतक एक विषय की ओर उन्मुख होते हुए भी अपने आप में मुक्त और संपूर्ण है। इस मुक्तक शैली में लिखे गये श्लोकों का प्रत्यक्ष प्रभाव पाठकों के हृदय पर पड़ता है जिसमें भाव और अभिव्यक्ति के साथ भाषा की त्रयी एक अनूठा प्रभाव छोड़ती है।
इस पुस्तक के लेखक ने विभिन्न पांडुलिपियों का सहारा लेकर 101 श्लोकों में रचित 'मृगांकशतकम्' को संपादित किया है। कविकंकण द्वारा लिखित यह 'मृगांकशतकम्' पाठकों का सम्मान प्राप्त करेगा ऐसा मुझे विश्वास है ।
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