काव्य-भाषा दैनिक व्यवहार की भाषा तथा परिनिष्ठित भाषा से अनेक स्तरों पर भिन्न होती है। दैनिक व्यवहार की भाषा का अभिप्राय संकुचित और तात्कालिक होता है। उसका लक्ष्य सूचना तथा विवरण प्रदान करना होता है। परिनिष्ठित भाषा भी परिष्कृत रूप से यही कार्य करती है। काव्य-भाषा का अभिप्राय व्यापक और स्थायी होता है । काव्य-भाषा अर्थ के अनेक स्तरों का उद्घाटन करती है। काव्य-भाषा, प्रयोग धर्मा तथा रचनात्मक होती है । काव्य-भाषा, सामान्य भाषा, परिनिष्ठित भाषा तथा बोलियों, अन्य भाषाओं तथा पुराण और तिलस्म से लेकर विज्ञान तक की शब्दावली का रचनात्मक स्तर पर प्रयोग करती है।
काव्य-भाषा सतत् परिवर्तनशील होती है। एक युग की परिनिष्ठित तथा साहित्यिक भाषा, अगले युग में, परिवर्तित सन्दर्भों के कारण, पुरानी और सामान्य बनकर मात्र एक रूढ़ि बन जाती है। काव्य-भाषा तब, अपनी ही पुरानी पड़ गयी सीमाओं और संरचनाओं को तोड़ देती है। इसे ही सामान्य भाषा-नियमों का अतिक्रमण अथवा मानक (नियमों) से विचलन, अथवा विपथन कहा जाता है। इस विचलन के अन्तर्गत, काव्य-भाषा, सामान्य-भाषा के व्याकरणिक नियमों का उल्लंघन करती है। काव्य-भार्षा का यह विचलन सोद्देश्य होता है। काव्य-भाषा, सामान्य-भाषा नियमों का अतिक्रमण कर नवीन सम्प्रेषणीय संभावनाओं का उद्घाटन करती है। काव्य-भाषा का विपथन काव्य-परम्परा, भाषा-नियमों अथवा परिवर्तित सन्दर्भों से नियंत्रित होता है । वस्तुतः सामान्य-भाषा और परिनिष्ठित (मानक) भाषा से विद्रोह कर काव्य-भाषा अपनी सार्थकता सिद्ध नहीं कर सकती, वरन् सामान्य और मानक भाषा में ही संभावनापूर्ण क्रान्ति कर, काव्य-भाषा सिद्ध हो सकती है।
काव्य-भाषा, मात्र मानक से विचलन ही नहीं करती वरन् भाषा की प्रस्थापित संभावनाओं का नये सन्दर्भ तथा नवीन स्थितियों में पूर्ण मौलिकता के साथ, उपयोग भी करती है। काव्य-भाषा अनेक प्रतीक, बिम्व और मिथक से सम्पन्न होती है। सामान्य भाषा मात्र प्रतीकात्मक होती है, किन्तु काव्य-भाषा प्रतीकात्मक होने के साथ-साथ बिम्बात्मक भी होती है। सामान्य भाषा में सामान्यतः एकार्थवाचकता होती है, किन्तु काव्य-भाषा 'अनेकार्थ-संभावना' से सम्पन्न होती है। काव्य-भाषा में विम्ब-सृष्टि रंगों दृश्यों, ध्वनियों का सृजन कर, काव्य-सौन्दर्य का उद्घाटन करती है तथा ध्वनि, शब्द और वाक्य-प्रयोग अर्थ की अनेक संभावनाओं का उद्घाटन करते हैं ।
काव्य-भाषा में, विपधन द्वारा अथवा मानक तथा प्राप्य भाषा संभावनाओं के चातुर्यपूर्ण उपयोग द्वारा किसी तथ्य-विशेष को, किसी रचना-तत्व को, अन्य तथ्यों या तत्वों से आगे लाकर, उभारकर प्रस्तुत किया जाता है। इसे ही 'अग्रप्रस्तुतीकरण' (फोरग्राउंडिंग) कहा जाता है।
यहाँ काव्य-भाषा से हमारा अभिप्राय, कथा, नाटक इत्यादि सम्पूर्ण रचनात्मक साहित्य की भाषा से है। काव्य का अभिप्राय भी मात्र कविता से नहीं वरन् सम्पूर्ण साहित्य से है ।
शैली विज्ञान :
रचनात्मक साहित्य की संरचना के केन्द्र में भाषा स्थित है। इसलिए काव्य-भाषा के उपादान द्वारा ही साहित्य का विश्लेषण किया जा सकता है; रचना के अर्थ तथा गर्भितार्य तक पहुँचा जा सकता है। काव्य-भाषा के इस प्रतिमान ने, भाषा-विज्ञान की मूल प्रकृति ग्रहण कर काव्य-शास्त्र से सम्बद्ध होकर तथा समाजशास्त्र, मानव-विज्ञान और दर्शनशास्त्र से निकटता प्रस्थापित कर, एक नवीन समीक्षा पद्धति को जन्म दिया है, जिसे 'शैली-विज्ञान', 'रीति-विज्ञान' अथवा 'शैली-शास्त्र' की संज्ञा दी गयी है। साहित्य-आलोचना की यह पद्धति अन्य अनेक समीक्षा-पद्धतियों की अपेक्षा, अधिक वस्तुनिष्ठ, समग्र, रचनात्मक तथा प्रयोगधर्मी है। 'शैली विज्ञान' संज्ञा, अंग्रेजी के 'लिग्यो-स्टाइलिस्टिक्स' की ही अनुकृतिहै। यह साहित्य की समीक्षा का सिद्धान्त तथा प्रणाली दोनों है। सिद्धान्त रूप में, शैली-विज्ञान, साहित्य को, शाब्दिक-कला मानता है। साहित्यिक रचना, और भाषा के बीच द्वंद्वात्मक संबंध होता है । साहित्यिक कलाकृति, इस द्वंद्व-प्रक्रिया में से गुजरकर भाषा के आंतरिक तनावों के अन्दर से ही जन्म ग्रहण करती है तथा भाषा के माध्यम से ही अभिव्यक्त और अभिव्यंजित होती है। भाषा का सामान्य अभिप्राय तो काव्य-भाषा में उपस्थित रहता ही है, उसके साथ ही, नवीन सन्दर्भों से युक्त, अतिरिक्त अभिप्राय उससे जन्म ग्रहण करने लगते हैं। इस प्रकार काव्य-भाषा अभिप्राय का अन्वेषण तथा उसकी परिवृद्धि करती जाती है । अभिप्राय, भाषिक संरचना पर आधारित तथा संरचना निर्मित होते हैं। इस प्रकार 'शैली' की परिभाषा 'संरचनामूलक, साभिप्राय भाषा-व्यवस्था' हो सकती है। साहित्य-भाषा की जटिल संरचनात्मक, साभिप्राय शैली के विश्लेषण तथा अन्वेषण के लिए एक प्रायोगिक-विज्ञान की आवश्यकता होती है। 'शैली विज्ञान' का जन्म इसी आवश्यकता की पूर्ति के हेतु हुआ है। शैली विज्ञान काव्य-भाषा की जटिल संरचना, उसकी प्रकृति तथा उसके अभिप्रायों का अन्वेषण तथा विश्लेषण करता है तथा इसी अर्थ में, यह शास्त्र रचनात्मक तथा वैज्ञानिक समीक्षा-शास्त्र कहा जा सकता है। 'शैली-विज्ञान' अभिव्यक्ति और अभिव्यंजना के समस्त उपकरणों की जांच-पड़ताल करता है। इनमें, ध्वनि, शब्द, वाक्य-रचना के प्रकार, प्रतीक, सादृश्य-विधान (रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि) विम्ब-सृष्टि, विपथन, अध्याहार आदि सभी उपकरण आ जाते हैं।
शैली-विज्ञान तथा भाषा-विज्ञान :
साहित्य भाषिक संरचना है। विशिष्ट भाषिक प्रयोगों द्वारा ही कवि या लेखक, अपनी अनुभूति तथा विचार को, रचना में, अभिव्यक्त करते हैं। इन भाषिक प्रयोगों के गर्भितार्थ तथा अभिप्राय तक पहुँचने के लिए भाषा-विज्ञान के सहयोग से भाषा वैज्ञानिक विश्लेषण प्रविधि ही आवश्यक होती है। काव्य-भाषा के अध्ययन के लिए 'चौम्स्की' द्वारा प्रस्तुत व्याकरणिता की विभिन्न कोटियों की अवधारणा, अत्यंत महत्वपूर्ण है । काव्य-भाषा में सम्पन्न हुए, पद-क्रम परिवर्तन अन्य भाषिक विपथनों तथा उसकी संरचना की अन्य प्रवृत्तियों का विश्लेषण इस नये विज्ञान द्वारा ही सम्भव हो सकता है ।
भाषा-विज्ञान भाषा के स्थिर रूप का अध्ययन करता है, किन्तु भाषा, सतत् परिवर्तनशील रहती है। वह गतिशील तथा प्रयोगधर्मी है। इन भाषिक प्रयोगों का अध्ययन भाषा-विज्ञान के नियमों द्वारा सम्पन्न नहीं हो सकता। शैली-विज्ञान द्वारा ही इन नव-प्रयोगों का अध्ययन हो सकता है। भाषा-विज्ञान वाक्य का अध्ययन करता है जबकि शैली-विज्ञान वाक्यों के पारस्परिक संबंधों का अध्ययन भी करता है। भाषा-विज्ञान की सीमा, सामान्य और प्राथमिक अर्थ तक ही सीमित है, लेकिन शैली-विज्ञान अर्थ के अनेक स्तरों का स्पर्श करता है। शैली-विज्ञान, भाषा-विज्ञान की प्रविधियों तथा दृष्टि को ग्रहण करता हुआ, रचना की संरचना का विश्लेषण करता है। किन्तु भाषा-विज्ञान, शैली-विज्ञान नहीं है । शैली-विज्ञान, भाषा-विज्ञान पर आधारित उसका विकसित स्वरूप है ।
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